राष्ट्रवादी सोच के भारतीयों के लिए अच्छी ख़बर है । जामिया मिल्लिया इस्लामिया में देशभक्तों की एक छोटी परन्तु ताकतवर शक्ति उभर रही है । यह युवा शक्ति "अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् " के बैनर तले अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं । पिछले वर्ष आरम्भ हुए जामिया की शाखा आज विभाग बन चुकी है जिसमें तीन इकाइयां काम कर रही है और अभी आगामी सत्र में एक और नगर इकाई बनाने की योजना पर गंभीरता से काम किया जा रहा है । संगठन से ज्यादा धयान नही मिल पाने के बावजूद भी यहाँ के युवा उत्साह से लबरेज हैं और लड़कर अपना हक , अपनी जगह संगठन में पा रहे हैं । प्रान्त कार्यकारिणी में भी हमारी भागीदारी कम नही है । लोगों का समर्थन भी मिल रहा है । आने वाले १० जुलाइ से १२ जुलाइ तक पूर्वी दिल्ली विभाग में आयोजित प्रान्त अभ्यास वर्ग में जामिया से 65 छात्र के शामिल होने का पत्रक प्रान्त को भेज दिया गया है । प्रान्त के अतिरिक्त देश भर के लगभग सारे कार्यक्रमों में विद्यार्थी परिषद् जामिया विभाग की भूमिया सराहनीय और सशक्त भागीदारी रहती है । 'ज्ञान ,शील , एकता ' के त्रिसूत्री मन्त्र का पालन करते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं । किसी ने सच कहा है -" दांव पर सपनो को लगा कर चल पड़े हैं , मंजिल तक पहुँचने में कारवां बन ही जाएगा । "
Tuesday, July 7, 2009
SECULAR शब्द , संविधान और इंदिरा गाँधी
भारत आरम्भ से ही धर्म निरपेक्ष राज्य रहा है। यों SECULAR शब्द को संविधान की प्रस्तावना में घुसेड़ने का श्रेय श्रीमती इन्दिरा गान्धी का है। घुसेड़ने शब्द का प्रयोग बहुत ही प्रासंगिक है। जब सन 1947 से ही 'सर्व धर्म सम्भाव' की भावना एवं कार्यप्रणाली हमारे तन्त्र का आवश्यक अंग थी,तो इसे संविधान की प्रस्तावना में घुसेड़ना, श्रीमती गान्धी द्वारा किया गया सिर्फ एक सस्ती लोकप्रियता भुनाने का प्रयास भर था।
वैसे धर्म निरपेक्षता और Secular दो अलग अलग संज्ञायें हैं। साधारणतया Secular शब्द का अर्थ होता है धर्म विहीनता या धर्म की अनुपस्थिति जबकि धर्म निरपेक्षता का अर्थ है 'सर्व धर्म सम्भाव' या आधिकारिक रुप से किसी भी विषय पर धर्म के आधार पर कोई निर्णय नहीं लेना। इस सारे संवाद में एक मूलभुत कठिनाई है। अंग्रेजी में 'धर्म' के लिये कोई शब्द है ही नही, तो 'धर्म निरपेक्षता' के लिये अंग्रेजी शब्द ढुंढना पूर्णतया बेमानी है।
शायद संविधान में धर्म और RELIGION के फर्क को समझने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। इसीलिये secular शब्द को घुसेड़ कर इन्दिरा गांधी ने मूर्खता या बाजारु Populist प्रक्रिया का परिचय भर ही दिया है।अगर हम मूल भावना की ओर जाते हैं तो धर्म निरपेक्ष अधिक सही बैठता है। Secular या धर्म विहीनता मनुष्य को इन्सानियत से ही परे कर देती है।
यहाँ महात्मा गांधी को उद्धृत करना अत्यन्त प्रासंगिक है। गान्धी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि भारत में राजनीति एवं धर्म को अलग अलग नहीं किया जा सकता। इस संवाद को समझने के लिये गांधी जी को एवं धर्म शब्द को परिभाषित करने की आवश्यकता है। अरविन्द घोष ने कहा था कि सनातन धर्म के उत्थान व जागरण में ही भारत का उत्थान व जागरण निहित है। विश्व में हिन्दू धर्म एक अकेला ऐसा धर्म है,जो किसी भी भौगोलिक राष्ट्र के संरक्षण की आवश्यकता महसूस नहीं करता। ब्रिटेन जैसे अग्रणी राष्ट्र का राज्य धर्म Protestant है। अमेरीका में अलग अलग प्रान्तों के अलग अलग अलग राज्य धर्म हैं।
भारत का एक तथाकथित अभिजात्य या बुद्धिजीवी वर्ग आज हिन्दुत्व शब्द मात्र को ओछा एवं घृणित मानने लगा है।सरकार की प्रत्यक्ष एव अप्रत्यक्ष सोच यह ही है कि यहां सिर्फ हिन्दुओं को ही धर्मनिरपेक्ष रहना है,अन्य सभी धर्म वालों को मनमानी करने के सारे अधिकार हैं। अंग्रेजी की कहावत की "To Bear One's Cross" हिन्दु चुंकि एक Majority है और जांत पांत के नाम पर बंटी हुई है और अल्पसंख्यक समुदाय का वोट बैंक है इसलिये हिन्दुओं को चुपचाप सरकारी apartheid सहन करना लाजिमी है। यानि secularism का "Cross Bear" सिर्फ बहुसंख्यक की जिम्मेदारी है। शेष समाज अल्पसंख्यक के नाम पर महज 10% अंक प्राप्त भर कर लेने से secular का दर्जा प्राप्त कर लेता है लेकिन हिन्दुओं के लिये पास मार्क्स 100% हैं।भारत में secularism एक ऐसा शब्द हो गया है कि आप हिन्दु शब्द का उच्चारण मात्र करने से या तिलक लगा लेने से Fanatic या कम से कम non secular की परिधी में तो आ ही जाते हैं। कुछ हद तक हिन्दी प्रेमी भी सन्देह के घेरे में तो आ ही जाते हैं। अगर आपको सेक्युलर दिखना है तो अंग्रेजी में बातें कीजिये,अंग्रेजी में लिखिये।
सर्वोच्च न्यालाय ने भी धर्मान्तरण को धर्म निरपेक्षता के दायरे में रखने से मना किया है। तथापि कुछ राज्यों में यथा ओड़ीशा में लागु "Freedom of Religion Act" को अल्पसंख्यकों ने धार्मिक कट्टरवाद की संज्ञा दी है। सर्वोच्च न्यालाय ने कहा था प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म को मानने,प्रचार करने एवं प्रसार करने की स्वतन्त्रता है। लेकिन धर्मान्तरण प्रचार एव प्रसार की परिसीमा के बाहर है। किसी भी व्यक्ति या समूह को प्रलोभन या अन्य किसी प्रकार के मिथ्याचरण से वशीभुत कर धर्मान्तरण करवाना उस व्यक्ति की धार्मिक स्वतन्त्रता पर कुठाराघात है। स्वामी विवेकानन्द ने तो यहां तक कहा है कि, एक धर्मान्तरित हिन्दु से सिर्फ एक हिन्दु की संख्या कम ही नहीं होती है,वरन एक शत्रु की संख्या भी बढ़ जाती है।इसाई प्रचारकों के अनेक संवाद हैं जहां धर्मान्तरण को अत्यन्त महत्व दिया गया है। यहां तक कि स्वय पोप ने अपनी भारत की यात्रा के दौरान कहा था 'Conversion is the Basic Tenet of Christianity'। यह दारुल इस्लाम की नाईं 'Land Of Christianity' और 'civilising others is the white mans burden' द्वारा एक और exclusivism का परिचय है।
धर्म निरपेक्षता भारत में सिर्फ वोट बटोरने का एक बाजा हो कर रह गया है। एक भी राजनैतिक दल इस पर इमानदारी से काम करने के लिये आग्रही नहीं है। पाकिस्तान में कहा जाता है कि मदरसों को सरकार से मान्यता प्राप्त करनी आवश्यक होगी। वहीं पशिम बंगाल के मुख्यमन्त्री यहां ऐसा कहने के तुरन्त पश्चात माफी मांगते हुये अपना बयान वापस लेते हैं। एक धर्म निरपेक्ष राज्य के प्रधान मन्त्री किस हक से धर्म के नाम पर एक वर्ग विशेष को "राष्ट्रीय संसाधनों पर प्रथमाधिकार" देने का बयान देते हैं मेरी समझ से परे है। यह सिर्फ तुष्टीकरण है या एक राजनैतिक चाल है। पहले जति के नाम पर आरक्षण अब धर्म के आधार पर आरक्षण। जहां अंग्रेजों ने भारत को दो टुकड़ों में बांटा ये तुच्छ एव टुच्चे नेता इस राष्ट्र के सौ टुकड़े कर देंगे। क्या विडम्बना है कि ये सारी ओछी राजनीति secularism के नाम पर ही हो रही है। विरोधी स्वरों को धार्मिक कट्टरता की संज्ञा दे कर अपनी संख्या की दुन्दुभी से दबा जिया जाता है।भाजपा एव संघ को कट्टरवादी करार देना मीडिया की वामपथी या "राजनैतिक CORRECT" छवि बनाने के तहत एक मजबूरी है। आजतक एक भी सार्थक बहस इस मुद्दे पर नहीं हो पायी है कि कौन सा राजनैतिक दल भाजपा की तुलना में कम साम्प्रदायिक है। दूरदर्शन में अनेक बार इस मुद्दे पर बहस का नाटक होता रहता है। लेकिन वहां भी तर्क से परे फेंफड़ों की शक्ति का आह्वान ही होता है। कतिपय पैनेलिस्ट के तर्कों को सुनकर तो प्रतीत होता है कि उनकी परिभाषा के अनुसार तो गांधी,अरविन्द घोष,स्वामी विवेकनन्द इत्यादि सभी हिन्दु कट्टरवादी थे।तथाकथित मीडिया में बैठे लोग अद्भुत व चमत्कारी कुड़ा करकट पैदा करने की क्षमता रखते हैं। इनका अज्ञान और इनकी अक्षमता दोनो एक दूसरे के पूरक है।आजादी के पहले मुस्लिम लीग, कांग्रेस पर हिन्दु कट्टरता के जो जो इल्जाम लगा रही थी, आज कांग्रेस, भाजपा पर सारे के सारे वे ही इल्जाम लगा रही है। यानि आज कांग्रेस मुस्लिम लीग के आसन पर है और भाजपा कांग्रेस के।यह तो सर्व विदित है कि भारत के विभाजन में सबसे अधिक भूमिका मुस्लिम लीग की ही रही है। यानि आज कांग्रेस अपनी पूरी सक्रियता से मुस्लिम लीग के सम विघटनात्मक गतिविधियों मे बद्ध है। आजतक भारत में जितनी भी विघटनत्मक कार्य हुए हैं यथा भिन्डरेवाला , उल्फा, बोडो या JKLF इनके सबके नेताओं के पार्श्व में कांग्रेसक़ का हाथ रहा है। उदाहरण के तौर पर भिन्डरेवाला को कांग्रेस ने तात्कालीन अकाली एवं भाजपा गठबंधन सरकार को मुश्किल में डालने हेतू स्वर्ण मन्दिर में स्थापित करवाया। वह ही भस्मासुर बन इन्दिरा जी को लील गया। भारत में balkanisation के तमाम काम कांग्रेस अपने अदूरदर्शिता व शार्ट्कट्स के तहत करवाती रही है।भारत का सुविधावादी तथाकथित बुद्धिजीवी (गमले में उपजा वर्ग), तो सिर्फ अपनी और अपनों की सुनता है।इनमें से चाटुकारों और चारणों को अगर निकाल दिया जाये तो इनकी संख्या 99% तक कम हो जायेगी।
भारत आरम्भ से ही धर्म निरपेक्ष राज्य रहा है। यों SECULAR शब्द को संविधान की प्रस्तावना में घुसेड़ने का श्रेय श्रीमती इन्दिरा गान्धी का है। घुसेड़ने शब्द का प्रयोग बहुत ही प्रासंगिक है। जब सन 1947 से ही 'सर्व धर्म सम्भाव' की भावना एवं कार्यप्रणाली हमारे तन्त्र का आवश्यक अंग थी,तो इसे संविधान की प्रस्तावना में घुसेड़ना, श्रीमती गान्धी द्वारा किया गया सिर्फ एक सस्ती लोकप्रियता भुनाने का प्रयास भर था।
वैसे धर्म निरपेक्षता और Secular दो अलग अलग संज्ञायें हैं। साधारणतया Secular शब्द का अर्थ होता है धर्म विहीनता या धर्म की अनुपस्थिति जबकि धर्म निरपेक्षता का अर्थ है 'सर्व धर्म सम्भाव' या आधिकारिक रुप से किसी भी विषय पर धर्म के आधार पर कोई निर्णय नहीं लेना। इस सारे संवाद में एक मूलभुत कठिनाई है। अंग्रेजी में 'धर्म' के लिये कोई शब्द है ही नही, तो 'धर्म निरपेक्षता' के लिये अंग्रेजी शब्द ढुंढना पूर्णतया बेमानी है।
शायद संविधान में धर्म और RELIGION के फर्क को समझने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। इसीलिये secular शब्द को घुसेड़ कर इन्दिरा गांधी ने मूर्खता या बाजारु Populist प्रक्रिया का परिचय भर ही दिया है।अगर हम मूल भावना की ओर जाते हैं तो धर्म निरपेक्ष अधिक सही बैठता है। Secular या धर्म विहीनता मनुष्य को इन्सानियत से ही परे कर देती है।
यहाँ महात्मा गांधी को उद्धृत करना अत्यन्त प्रासंगिक है। गान्धी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि भारत में राजनीति एवं धर्म को अलग अलग नहीं किया जा सकता। इस संवाद को समझने के लिये गांधी जी को एवं धर्म शब्द को परिभाषित करने की आवश्यकता है। अरविन्द घोष ने कहा था कि सनातन धर्म के उत्थान व जागरण में ही भारत का उत्थान व जागरण निहित है। विश्व में हिन्दू धर्म एक अकेला ऐसा धर्म है,जो किसी भी भौगोलिक राष्ट्र के संरक्षण की आवश्यकता महसूस नहीं करता। ब्रिटेन जैसे अग्रणी राष्ट्र का राज्य धर्म Protestant है। अमेरीका में अलग अलग प्रान्तों के अलग अलग अलग राज्य धर्म हैं।
भारत का एक तथाकथित अभिजात्य या बुद्धिजीवी वर्ग आज हिन्दुत्व शब्द मात्र को ओछा एवं घृणित मानने लगा है।सरकार की प्रत्यक्ष एव अप्रत्यक्ष सोच यह ही है कि यहां सिर्फ हिन्दुओं को ही धर्मनिरपेक्ष रहना है,अन्य सभी धर्म वालों को मनमानी करने के सारे अधिकार हैं। अंग्रेजी की कहावत की "To Bear One's Cross" हिन्दु चुंकि एक Majority है और जांत पांत के नाम पर बंटी हुई है और अल्पसंख्यक समुदाय का वोट बैंक है इसलिये हिन्दुओं को चुपचाप सरकारी apartheid सहन करना लाजिमी है। यानि secularism का "Cross Bear" सिर्फ बहुसंख्यक की जिम्मेदारी है। शेष समाज अल्पसंख्यक के नाम पर महज 10% अंक प्राप्त भर कर लेने से secular का दर्जा प्राप्त कर लेता है लेकिन हिन्दुओं के लिये पास मार्क्स 100% हैं।भारत में secularism एक ऐसा शब्द हो गया है कि आप हिन्दु शब्द का उच्चारण मात्र करने से या तिलक लगा लेने से Fanatic या कम से कम non secular की परिधी में तो आ ही जाते हैं। कुछ हद तक हिन्दी प्रेमी भी सन्देह के घेरे में तो आ ही जाते हैं। अगर आपको सेक्युलर दिखना है तो अंग्रेजी में बातें कीजिये,अंग्रेजी में लिखिये।
सर्वोच्च न्यालाय ने भी धर्मान्तरण को धर्म निरपेक्षता के दायरे में रखने से मना किया है। तथापि कुछ राज्यों में यथा ओड़ीशा में लागु "Freedom of Religion Act" को अल्पसंख्यकों ने धार्मिक कट्टरवाद की संज्ञा दी है। सर्वोच्च न्यालाय ने कहा था प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म को मानने,प्रचार करने एवं प्रसार करने की स्वतन्त्रता है। लेकिन धर्मान्तरण प्रचार एव प्रसार की परिसीमा के बाहर है। किसी भी व्यक्ति या समूह को प्रलोभन या अन्य किसी प्रकार के मिथ्याचरण से वशीभुत कर धर्मान्तरण करवाना उस व्यक्ति की धार्मिक स्वतन्त्रता पर कुठाराघात है। स्वामी विवेकानन्द ने तो यहां तक कहा है कि, एक धर्मान्तरित हिन्दु से सिर्फ एक हिन्दु की संख्या कम ही नहीं होती है,वरन एक शत्रु की संख्या भी बढ़ जाती है।इसाई प्रचारकों के अनेक संवाद हैं जहां धर्मान्तरण को अत्यन्त महत्व दिया गया है। यहां तक कि स्वय पोप ने अपनी भारत की यात्रा के दौरान कहा था 'Conversion is the Basic Tenet of Christianity'। यह दारुल इस्लाम की नाईं 'Land Of Christianity' और 'civilising others is the white mans burden' द्वारा एक और exclusivism का परिचय है।
धर्म निरपेक्षता भारत में सिर्फ वोट बटोरने का एक बाजा हो कर रह गया है। एक भी राजनैतिक दल इस पर इमानदारी से काम करने के लिये आग्रही नहीं है। पाकिस्तान में कहा जाता है कि मदरसों को सरकार से मान्यता प्राप्त करनी आवश्यक होगी। वहीं पशिम बंगाल के मुख्यमन्त्री यहां ऐसा कहने के तुरन्त पश्चात माफी मांगते हुये अपना बयान वापस लेते हैं। एक धर्म निरपेक्ष राज्य के प्रधान मन्त्री किस हक से धर्म के नाम पर एक वर्ग विशेष को "राष्ट्रीय संसाधनों पर प्रथमाधिकार" देने का बयान देते हैं मेरी समझ से परे है। यह सिर्फ तुष्टीकरण है या एक राजनैतिक चाल है। पहले जति के नाम पर आरक्षण अब धर्म के आधार पर आरक्षण। जहां अंग्रेजों ने भारत को दो टुकड़ों में बांटा ये तुच्छ एव टुच्चे नेता इस राष्ट्र के सौ टुकड़े कर देंगे। क्या विडम्बना है कि ये सारी ओछी राजनीति secularism के नाम पर ही हो रही है। विरोधी स्वरों को धार्मिक कट्टरता की संज्ञा दे कर अपनी संख्या की दुन्दुभी से दबा जिया जाता है।भाजपा एव संघ को कट्टरवादी करार देना मीडिया की वामपथी या "राजनैतिक CORRECT" छवि बनाने के तहत एक मजबूरी है। आजतक एक भी सार्थक बहस इस मुद्दे पर नहीं हो पायी है कि कौन सा राजनैतिक दल भाजपा की तुलना में कम साम्प्रदायिक है। दूरदर्शन में अनेक बार इस मुद्दे पर बहस का नाटक होता रहता है। लेकिन वहां भी तर्क से परे फेंफड़ों की शक्ति का आह्वान ही होता है। कतिपय पैनेलिस्ट के तर्कों को सुनकर तो प्रतीत होता है कि उनकी परिभाषा के अनुसार तो गांधी,अरविन्द घोष,स्वामी विवेकनन्द इत्यादि सभी हिन्दु कट्टरवादी थे।तथाकथित मीडिया में बैठे लोग अद्भुत व चमत्कारी कुड़ा करकट पैदा करने की क्षमता रखते हैं। इनका अज्ञान और इनकी अक्षमता दोनो एक दूसरे के पूरक है।आजादी के पहले मुस्लिम लीग, कांग्रेस पर हिन्दु कट्टरता के जो जो इल्जाम लगा रही थी, आज कांग्रेस, भाजपा पर सारे के सारे वे ही इल्जाम लगा रही है। यानि आज कांग्रेस मुस्लिम लीग के आसन पर है और भाजपा कांग्रेस के।यह तो सर्व विदित है कि भारत के विभाजन में सबसे अधिक भूमिका मुस्लिम लीग की ही रही है। यानि आज कांग्रेस अपनी पूरी सक्रियता से मुस्लिम लीग के सम विघटनात्मक गतिविधियों मे बद्ध है। आजतक भारत में जितनी भी विघटनत्मक कार्य हुए हैं यथा भिन्डरेवाला , उल्फा, बोडो या JKLF इनके सबके नेताओं के पार्श्व में कांग्रेसक़ का हाथ रहा है। उदाहरण के तौर पर भिन्डरेवाला को कांग्रेस ने तात्कालीन अकाली एवं भाजपा गठबंधन सरकार को मुश्किल में डालने हेतू स्वर्ण मन्दिर में स्थापित करवाया। वह ही भस्मासुर बन इन्दिरा जी को लील गया। भारत में balkanisation के तमाम काम कांग्रेस अपने अदूरदर्शिता व शार्ट्कट्स के तहत करवाती रही है।भारत का सुविधावादी तथाकथित बुद्धिजीवी (गमले में उपजा वर्ग), तो सिर्फ अपनी और अपनों की सुनता है।इनमें से चाटुकारों और चारणों को अगर निकाल दिया जाये तो इनकी संख्या 99% तक कम हो जायेगी।
Friday, July 3, 2009
राष्ट्रगान साम्प्रदायिकता और संकीर्णता से भरा है :राजेन्द्र यादव
हमारे कई पाठकों ने वंदे मातरम् गीत के बारे में जानना चाहा है कि इसका इतिहास क्या है और यह पूरा गीत कहाँ उपलब्ध होगा। हम यहाँ पूरा गीत उपलब्ध करा रहे हैं, साथ ही यह भी बता देना चाहते हैं कि इस गीत को पूरा गाने पर इसलिए रोक लगा दी थी कि कतिपय राष्ट्रविरोधी ताकतों को यह गीत अधार्मिक और उनकी धार्मिक भावनाओं के खिलाफ लग रहा था। इस गीत में लाल रंग में दी गई पंक्तियों को राष्ट्र विरोधी मान लिया गया था, अब यह आप ही फैसला करें कि इन पंक्तियों में ऐसा क्या है जिसके गाने से देश की एकता और अखंडता को हानि पहुँच रही थी। इस देश में जब तक ऐसी सरकारें मौजूद रहेगी, जो राष्ट्र भक्ति से ओत-प्रोत गीत को ही राष्ट्र विरोधी मानेगी तो फिर इस देश को आतंकवाद और राष्ट्र विरोधी शक्तियों से कोई नहीं बचा सकता।इस विषय पर मध्य प्रदेश के जन संपर्क आयुक्त एवं वरिष्ठ आयएएस अधिकारी श्री मनोज श्रीवास्तव का एक खोजपरक लेख भी हमें मिला है, जिसमें उन्होंने दुनिया भर के कई देशों के राष्ट्रीय गीतों के इतिहास के साथ ही वंदे मातरम् के इतिहास. आज़ादी के पहले से लेकर आज़ादी के बाद तक की इसकी यात्रा और इसके विभिन्न आयामों को प्रामाणिक तथ्यों के साथ सामने लाने की कोशिश की है। हिन्दी में वंदे मातरम् पर इससे बेहतरीन लेख इंटरनेट पर कहीं उपलब्ध नहीं है। हम अपने पाठकों के लिए यह लेख भी साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। आज देश को मनोज श्रीवास्तव जैसे आयएएस अधिकारियों की जरुरत है जो अपनी भाषा में राष्ट्रीय हित से जु़ड़े मुद्दों पर चिंतन ही नहीं करते हैं बल्कि उस पर बेबाकी से अपनी कलम भी चलाते हैं।दुनिया के अधिकतर राष्ट्रगीत उस देश के संघर्ष के समय पैदा हुए हैं। चाहे फ्राँस हो या अमेरिका, उनकी उत्पत्ति संकट और संघर्ष के क्षणों में हुई है। स्वयं ब्रिटेन का राष्ट्रगीत जैकोबाइट विद्रोह के दौर की ही देन है। ये कहीं किसी राष्ट्र नायक के इर्द-गिर्द विकसित हुए डेनमार्क, हैती आदि तो कहीं देश के ध्वज के संदर्भ में होंडुरास, संयु राज्य अमेरिका, कहीं ये शुद्ध प्रार्थना है तो कहीं ये शस्त्र उठाने का आव्हान स्पेन, फ्राँस आदि, कहीं ये लोकगीत। दुनिया के हर देश को अपने राष्टर गीत पर नाज़ होता है और वहाँ के लोग उसे गाने मैं गौरव महसूस करते है। हमारे यहा राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान दोनों हैं। मगर अजीब विडंबना है कि हमारे देश में असंदिग्ध सम्मान का अधिकारी वो राष्ट्रगान भी नहीं है, जिसे गुनगुनाना भी औपनिवेशिक राजसत्ता के दौर में एक आपराधिक कृत्य था क्योंकि उसकी स्वर लहरी से साम्राज्यवादियों को नर्वस ब्रेकडाउन हो जाता था। ऐसे अद्भुत राष्ट्रगान के बारे में आइए देखें कि गलतफहमी फैलाने वाले किस हद तक अपने मानसिक दिवालिएपन को उजागर करते हैं।राजेन्द्र यादव जो 'वरिष्ठ साहित्यकार और मासिक पत्रिका 'हंस के संपादक हैं, का कहना है कि 'उनकी यह राष्ट्र वंदना बहुत ही सांप्रदायिक और संकीर्ण मानसिकता वाली है। ऐसी ही मातृभूमि की कल्पना वंदे मातरम् में की गई है जो म्लेच्छों से खाली होगी। इसे नहीं मंजूर किया जा सकता है।दिक्कत यह है कि वंदे मातरम् गाना जिस उपन्यास से लिया गया है, वह मुसलमानों के खिलाफ़ है और अंग्रेजों के भी। इस उपन्यास और इस गाने में अपनी मातृभूमि को म्लेच्छों से खाली कराने का आव्हान किया गया है। यहा म्लेच्छों का संदर्भ बिल्कुल स्पष्ट है। मुसलमानों को म्लेच्छ माना गया है। इस लिहाज से यह बहुत सांप्रदायिक ढंग का गाना है, जिसे नह गाया जाना चाहिए।कहने को तो यह मातृभूमि की वंदना है लेकिन सवाल यह उठता है कि किसकी मातृभूमि और कैसी मातृभूमि? जिस तरह से भारत का राष्ट्रगीत है उसमें सबको शामिल करने की बात कही गई है, लेकिन वंदे मातरम् में देश के एक बड़े समूह को अलग करने की बात कही गई है, इसलिए यह नकारात्मक गाना है।यादव की यह टिप्पणी विचारहीनता और तर्कहीनता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व तो करती ही है, तथ्यहीनता को भी स्पष्ट करती है। महोदय ने वंदे मातरम् को पूरा-पूरा पढा भी नह है, यह उनकी इस टीप में कट तथ्य संबंधी त्रुटियों से ही स्पष्ट है।वंदे मातरम् के जिन दो छंदों को राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया है, उनमें न म्लेच्छ शब्द का प्रत्यक्ष या परोक्ष योग है और न म्लेच्छों से देश को खाली कराने के किसी लक्ष्य, इरादे या योजना का। दो छंद तो पूर्णत: विशेषणों से भरपूर हैं : सुजलाम् सुफलाम्, मलयज शीतलाम्, शस्य श्यामलाम्, शुभ्र ज्योत्स्नाम्, पुलकित यामिनीम्; फुल्लकुसुमित, द्रुमदल शोभिनीम्, सुहासिनीम्, सुमधुर भाषिणीम्; सुखदाम्, वरदाम्---।इनमें कहाँ हैं म्लेच्छ और उनसे मातृभूमि को खाली कराने के उद्गार? यह एक विडंबना ही है कि एक गीत जो औपनिवेशिक शोषण और गुलामी के विरुद्ध सारे भारतीयों को जोड़ने का मूलमंत्र बना, समकालीन स्वतंत्र भारत में 'भड़काने और विभाजित करने के आरोप का शिकार हो रहा है। इस गीत में कौन सी 'नकारात्मकता है?जिन कोटि-कोटि कंठ के कलकल निनाद की बात इस गीत में कही गई है क्या उसमें कोई जातीय या सांप्रदायिक सोच दिखाई देता है? जिन कोटि-कोटि भुजाओं की बात इसमें कही गई है क्या उसमें सिर्फ हिंदुओं की ही भुजाए हैं? 'सांप्रदायिक विभाजन गीत में नहीं, इसके इन वरिष्ठ व्याख्याकारों के दिमाग में है जो एक स्थानांतरण ट्रांस्फेरेंस की मनोरचना मेंटल मैकेनिज्म के चलते इस गीत पर आरोपित किया गया है।
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