Tuesday, July 7, 2009

दिल्ली प्रान्त के अभ्यास वर्ग में शामिल होंगे जामिया ABVP के 65 छात्र

राष्ट्रवादी सोच के भारतीयों के लिए अच्छी ख़बर है । जामिया मिल्लिया इस्लामिया में देशभक्तों की एक छोटी परन्तु ताकतवर शक्ति उभर रही है । यह युवा शक्ति "अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् " के बैनर तले अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं । पिछले वर्ष आरम्भ हुए जामिया की शाखा आज विभाग बन चुकी है जिसमें तीन इकाइयां काम कर रही है और अभी आगामी सत्र में एक और नगर इकाई बनाने की योजना पर गंभीरता से काम किया जा रहा है । संगठन से ज्यादा धयान नही मिल पाने के बावजूद भी यहाँ के युवा उत्साह से लबरेज हैं और लड़कर अपना हक , अपनी जगह संगठन में पा रहे हैं । प्रान्त कार्यकारिणी में भी हमारी भागीदारी कम नही है । लोगों का समर्थन भी मिल रहा है । आने वाले १० जुलाइ से १२ जुलाइ तक पूर्वी दिल्ली विभाग में आयोजित प्रान्त अभ्यास वर्ग में जामिया से 65 छात्र के शामिल होने का पत्रक प्रान्त को भेज दिया गया है । प्रान्त के अतिरिक्त देश भर के लगभग सारे कार्यक्रमों में विद्यार्थी परिषद् जामिया विभाग की भूमिया सराहनीय और सशक्त भागीदारी रहती है । 'ज्ञान ,शील , एकता ' के त्रिसूत्री मन्त्र का पालन करते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं । किसी ने सच कहा है -" दांव पर सपनो को लगा कर चल पड़े हैं , मंजिल तक पहुँचने में कारवां बन ही जाएगा । "
SECULAR शब्द , संविधान और इंदिरा गाँधी
भारत आरम्भ से ही धर्म निरपेक्ष राज्य रहा है। यों SECULAR शब्द को संविधान की प्रस्तावना में घुसेड़ने का श्रेय श्रीमती इन्दिरा गान्धी का है। घुसेड़ने शब्द का प्रयोग बहुत ही प्रासंगिक है। जब सन 1947 से ही 'सर्व धर्म सम्भाव' की भावना एवं कार्यप्रणाली हमारे तन्त्र का आवश्यक अंग थी,तो इसे संविधान की प्रस्तावना में घुसेड़ना, श्रीमती गान्धी द्वारा किया गया सिर्फ एक सस्ती लोकप्रियता भुनाने का प्रयास भर था।
वैसे धर्म निरपेक्षता और Secular दो अलग अलग संज्ञायें हैं। साधारणतया Secular शब्द का अर्थ होता है धर्म विहीनता या धर्म की अनुपस्थिति जबकि धर्म निरपेक्षता का अर्थ है 'सर्व धर्म सम्भाव' या आधिकारिक रुप से किसी भी विषय पर धर्म के आधार पर कोई निर्णय नहीं लेना। इस सारे संवाद में एक मूलभुत कठिनाई है। अंग्रेजी में 'धर्म' के लिये कोई शब्द है ही नही, तो 'धर्म निरपेक्षता' के लिये अंग्रेजी शब्द ढुंढना पूर्णतया बेमानी है।
शायद संविधान में धर्म और RELIGION के फर्क को समझने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। इसीलिये secular शब्द को घुसेड़ कर इन्दिरा गांधी ने मूर्खता या बाजारु Populist प्रक्रिया का परिचय भर ही दिया है।अगर हम मूल भावना की ओर जाते हैं तो धर्म निरपेक्ष अधिक सही बैठता है। Secular या धर्म विहीनता मनुष्य को इन्सानियत से ही परे कर देती है।
यहाँ महात्मा गांधी को उद्धृत करना अत्यन्त प्रासंगिक है। गान्धी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि भारत में राजनीति एवं धर्म को अलग अलग नहीं किया जा सकता। इस संवाद को समझने के लिये गांधी जी को एवं धर्म शब्द को परिभाषित करने की आवश्यकता है। अरविन्द घोष ने कहा था कि सनातन धर्म के उत्थान व जागरण में ही भारत का उत्थान व जागरण निहित है। विश्व में हिन्दू धर्म एक अकेला ऐसा धर्म है,जो किसी भी भौगोलिक राष्ट्र के संरक्षण की आवश्यकता महसूस नहीं करता। ब्रिटेन जैसे अग्रणी राष्ट्र का राज्य धर्म Protestant है। अमेरीका में अलग अलग प्रान्तों के अलग अलग अलग राज्य धर्म हैं।
भारत का एक तथाकथित अभिजात्य या बुद्धिजीवी वर्ग आज हिन्दुत्व शब्द मात्र को ओछा एवं घृणित मानने लगा है।सरकार की प्रत्यक्ष एव अप्रत्यक्ष सोच यह ही है कि यहां सिर्फ हिन्दुओं को ही धर्मनिरपेक्ष रहना है,अन्य सभी धर्म वालों को मनमानी करने के सारे अधिकार हैं। अंग्रेजी की कहावत की "To Bear One's Cross" हिन्दु चुंकि एक Majority है और जांत पांत के नाम पर बंटी हुई है और अल्पसंख्यक समुदाय का वोट बैंक है इसलिये हिन्दुओं को चुपचाप सरकारी apartheid सहन करना लाजिमी है। यानि secularism का "Cross Bear" सिर्फ बहुसंख्यक की जिम्मेदारी है। शेष समाज अल्पसंख्यक के नाम पर महज 10% अंक प्राप्त भर कर लेने से secular का दर्जा प्राप्त कर लेता है लेकिन हिन्दुओं के लिये पास मार्क्स 100% हैं।भारत में secularism एक ऐसा शब्द हो गया है कि आप हिन्दु शब्द का उच्चारण मात्र करने से या तिलक लगा लेने से Fanatic या कम से कम non secular की परिधी में तो आ ही जाते हैं। कुछ हद तक हिन्दी प्रेमी भी सन्देह के घेरे में तो आ ही जाते हैं। अगर आपको सेक्युलर दिखना है तो अंग्रेजी में बातें कीजिये,अंग्रेजी में लिखिये।
सर्वोच्च न्यालाय ने भी धर्मान्तरण को धर्म निरपेक्षता के दायरे में रखने से मना किया है। तथापि कुछ राज्यों में यथा ओड़ीशा में लागु "Freedom of Religion Act" को अल्पसंख्यकों ने धार्मिक कट्टरवाद की संज्ञा दी है। सर्वोच्च न्यालाय ने कहा था प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म को मानने,प्रचार करने एवं प्रसार करने की स्वतन्त्रता है। लेकिन धर्मान्तरण प्रचार एव प्रसार की परिसीमा के बाहर है। किसी भी व्यक्ति या समूह को प्रलोभन या अन्य किसी प्रकार के मिथ्याचरण से वशीभुत कर धर्मान्तरण करवाना उस व्यक्ति की धार्मिक स्वतन्त्रता पर कुठाराघात है। स्वामी विवेकानन्द ने तो यहां तक कहा है कि, एक धर्मान्तरित हिन्दु से सिर्फ एक हिन्दु की संख्या कम ही नहीं होती है,वरन एक शत्रु की संख्या भी बढ़ जाती है।इसाई प्रचारकों के अनेक संवाद हैं जहां धर्मान्तरण को अत्यन्त महत्व दिया गया है। यहां तक कि स्वय पोप ने अपनी भारत की यात्रा के दौरान कहा था 'Conversion is the Basic Tenet of Christianity'। यह दारुल इस्लाम की नाईं 'Land Of Christianity' और 'civilising others is the white mans burden' द्वारा एक और exclusivism का परिचय है।
धर्म निरपेक्षता भारत में सिर्फ वोट बटोरने का एक बाजा हो कर रह गया है। एक भी राजनैतिक दल इस पर इमानदारी से काम करने के लिये आग्रही नहीं है। पाकिस्तान में कहा जाता है कि मदरसों को सरकार से मान्यता प्राप्त करनी आवश्यक होगी। वहीं पशिम बंगाल के मुख्यमन्त्री यहां ऐसा कहने के तुरन्त पश्चात माफी मांगते हुये अपना बयान वापस लेते हैं। एक धर्म निरपेक्ष राज्य के प्रधान मन्त्री किस हक से धर्म के नाम पर एक वर्ग विशेष को "राष्ट्रीय संसाधनों पर प्रथमाधिकार" देने का बयान देते हैं मेरी समझ से परे है। यह सिर्फ तुष्टीकरण है या एक राजनैतिक चाल है। पहले जति के नाम पर आरक्षण अब धर्म के आधार पर आरक्षण। जहां अंग्रेजों ने भारत को दो टुकड़ों में बांटा ये तुच्छ एव टुच्चे नेता इस राष्ट्र के सौ टुकड़े कर देंगे। क्या विडम्बना है कि ये सारी ओछी राजनीति secularism के नाम पर ही हो रही है। विरोधी स्वरों को धार्मिक कट्टरता की संज्ञा दे कर अपनी संख्या की दुन्दुभी से दबा जिया जाता है।भाजपा एव संघ को कट्टरवादी करार देना मीडिया की वामपथी या "राजनैतिक CORRECT" छवि बनाने के तहत एक मजबूरी है। आजतक एक भी सार्थक बहस इस मुद्दे पर नहीं हो पायी है कि कौन सा राजनैतिक दल भाजपा की तुलना में कम साम्प्रदायिक है। दूरदर्शन में अनेक बार इस मुद्दे पर बहस का नाटक होता रहता है। लेकिन वहां भी तर्क से परे फेंफड़ों की शक्ति का आह्वान ही होता है। कतिपय पैनेलिस्ट के तर्कों को सुनकर तो प्रतीत होता है कि उनकी परिभाषा के अनुसार तो गांधी,अरविन्द घोष,स्वामी विवेकनन्द इत्यादि सभी हिन्दु कट्टरवादी थे।तथाकथित मीडिया में बैठे लोग अद्भुत व चमत्कारी कुड़ा करकट पैदा करने की क्षमता रखते हैं। इनका अज्ञान और इनकी अक्षमता दोनो एक दूसरे के पूरक है।आजादी के पहले मुस्लिम लीग, कांग्रेस पर हिन्दु कट्टरता के जो जो इल्जाम लगा रही थी, आज कांग्रेस, भाजपा पर सारे के सारे वे ही इल्जाम लगा रही है। यानि आज कांग्रेस मुस्लिम लीग के आसन पर है और भाजपा कांग्रेस के।यह तो सर्व विदित है कि भारत के विभाजन में सबसे अधिक भूमिका मुस्लिम लीग की ही रही है। यानि आज कांग्रेस अपनी पूरी सक्रियता से मुस्लिम लीग के सम विघटनात्मक गतिविधियों मे बद्ध है। आजतक भारत में जितनी भी विघटनत्मक कार्य हुए हैं यथा भिन्डरेवाला , उल्फा, बोडो या JKLF इनके सबके नेताओं के पार्श्व में कांग्रेसक़ का हाथ रहा है। उदाहरण के तौर पर भिन्डरेवाला को कांग्रेस ने तात्कालीन अकाली एवं भाजपा गठबंधन सरकार को मुश्किल में डालने हेतू स्वर्ण मन्दिर में स्थापित करवाया। वह ही भस्मासुर बन इन्दिरा जी को लील गया। भारत में balkanisation के तमाम काम कांग्रेस अपने अदूरदर्शिता व शार्ट्कट्स के तहत करवाती रही है।भारत का सुविधावादी तथाकथित बुद्धिजीवी (गमले में उपजा वर्ग), तो सिर्फ अपनी और अपनों की सुनता है।इनमें से चाटुकारों और चारणों को अगर निकाल दिया जाये तो इनकी संख्या 99% तक कम हो जायेगी।

Friday, July 3, 2009

राष्ट्रगान साम्प्रदायिकता और संकीर्णता से भरा है :राजेन्द्र यादव

हमारे कई पाठकों ने वंदे मातरम् गीत के बारे में जानना चाहा है कि इसका इतिहास क्या है और यह पूरा गीत कहाँ उपलब्ध होगा। हम यहाँ पूरा गीत उपलब्ध करा रहे हैं, साथ ही यह भी बता देना चाहते हैं कि इस गीत को पूरा गाने पर इसलिए रोक लगा दी थी कि कतिपय राष्ट्रविरोधी ताकतों को यह गीत अधार्मिक और उनकी धार्मिक भावनाओं के खिलाफ लग रहा था। इस गीत में लाल रंग में दी गई पंक्तियों को राष्ट्र विरोधी मान लिया गया था, अब यह आप ही फैसला करें कि इन पंक्तियों में ऐसा क्या है जिसके गाने से देश की एकता और अखंडता को हानि पहुँच रही थी। इस देश में जब तक ऐसी सरकारें मौजूद रहेगी, जो राष्ट्र भक्ति से ओत-प्रोत गीत को ही राष्ट्र विरोधी मानेगी तो फिर इस देश को आतंकवाद और राष्ट्र विरोधी शक्तियों से कोई नहीं बचा सकता।इस विषय पर मध्य प्रदेश के जन संपर्क आयुक्त एवं वरिष्ठ आयएएस अधिकारी श्री मनोज श्रीवास्तव का एक खोजपरक लेख भी हमें मिला है, जिसमें उन्होंने दुनिया भर के कई देशों के राष्ट्रीय गीतों के इतिहास के साथ ही वंदे मातरम् के इतिहास. आज़ादी के पहले से लेकर आज़ादी के बाद तक की इसकी यात्रा और इसके विभिन्न आयामों को प्रामाणिक तथ्यों के साथ सामने लाने की कोशिश की है। हिन्दी में वंदे मातरम् पर इससे बेहतरीन लेख इंटरनेट पर कहीं उपलब्ध नहीं है। हम अपने पाठकों के लिए यह लेख भी साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। आज देश को मनोज श्रीवास्तव जैसे आयएएस अधिकारियों की जरुरत है जो अपनी भाषा में राष्ट्रीय हित से जु़ड़े मुद्दों पर चिंतन ही नहीं करते हैं बल्कि उस पर बेबाकी से अपनी कलम भी चलाते हैं।दुनिया के अधिकतर राष्ट्रगीत उस देश के संघर्ष के समय पैदा हुए हैं। चाहे फ्राँस हो या अमेरिका, उनकी उत्पत्ति संकट और संघर्ष के क्षणों में हुई है। स्वयं ब्रिटेन का राष्ट्रगीत जैकोबाइट विद्रोह के दौर की ही देन है। ये कहीं किसी राष्ट्र नायक के इर्द-गिर्द विकसित हुए डेनमार्क, हैती आदि तो कहीं देश के ध्वज के संदर्भ में होंडुरास, संयु राज्य अमेरिका, कहीं ये शुद्ध प्रार्थना है तो कहीं ये शस्त्र उठाने का आव्हान स्पेन, फ्राँस आदि, कहीं ये लोकगीत। दुनिया के हर देश को अपने राष्टर गीत पर नाज़ होता है और वहाँ के लोग उसे गाने मैं गौरव महसूस करते है। हमारे यहा राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान दोनों हैं। मगर अजीब विडंबना है कि हमारे देश में असंदिग्ध सम्मान का अधिकारी वो राष्ट्रगान भी नहीं है, जिसे गुनगुनाना भी औपनिवेशिक राजसत्ता के दौर में एक आपराधिक कृत्य था क्योंकि उसकी स्वर लहरी से साम्राज्यवादियों को नर्वस ब्रेकडाउन हो जाता था। ऐसे अद्भुत राष्ट्रगान के बारे में आइए देखें कि गलतफहमी फैलाने वाले किस हद तक अपने मानसिक दिवालिएपन को उजागर करते हैं।राजेन्द्र यादव जो 'वरिष्ठ साहित्यकार और मासिक पत्रिका 'हंस के संपादक हैं, का कहना है कि 'उनकी यह राष्ट्र वंदना बहुत ही सांप्रदायिक और संकीर्ण मानसिकता वाली है। ऐसी ही मातृभूमि की कल्पना वंदे मातरम्‌ में की गई है जो म्लेच्छों से खाली होगी। इसे नहीं मंजूर किया जा सकता है।दिक्कत यह है कि वंदे मातरम्‌ गाना जिस उपन्यास से लिया गया है, वह मुसलमानों के खिलाफ़ है और अंग्रेजों के भी। इस उपन्यास और इस गाने में अपनी मातृभूमि को म्लेच्छों से खाली कराने का आव्हान किया गया है। यहा म्लेच्छों का संदर्भ बिल्कुल स्पष्ट है। मुसलमानों को म्लेच्छ माना गया है। इस लिहाज से यह बहुत सांप्रदायिक ढंग का गाना है, जिसे नह गाया जाना चाहिए।कहने को तो यह मातृभूमि की वंदना है लेकिन सवाल यह उठता है कि किसकी मातृभूमि और कैसी मातृभूमि? जिस तरह से भारत का राष्ट्रगीत है उसमें सबको शामिल करने की बात कही गई है, लेकिन वंदे मातरम्‌ में देश के एक बड़े समूह को अलग करने की बात कही गई है, इसलिए यह नकारात्मक गाना है।यादव की यह टिप्पणी विचारहीनता और तर्कहीनता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधित्व तो करती ही है, तथ्यहीनता को भी स्पष्ट करती है। महोदय ने वंदे मातरम्‌ को पूरा-पूरा पढा भी नह है, यह उनकी इस टीप में कट तथ्य संबंधी त्रुटियों से ही स्पष्ट है।वंदे मातरम्‌ के जिन दो छंदों को राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया है, उनमें न म्लेच्छ शब्द का प्रत्यक्ष या परोक्ष योग है और न म्लेच्छों से देश को खाली कराने के किसी लक्ष्य, इरादे या योजना का। दो छंद तो पूर्णत: विशेषणों से भरपूर हैं : सुजलाम्‌ सुफलाम्‌, मलयज शीतलाम्‌, शस्य श्यामलाम्‌, शुभ्र ज्योत्स्नाम्‌, पुलकित यामिनीम्‌; फुल्लकुसुमित, द्रुमदल शोभिनीम्‌, सुहासिनीम्‌, सुमधुर भाषिणीम्‌; सुखदाम्‌, वरदाम्‌---।इनमें कहाँ हैं म्लेच्छ और उनसे मातृभूमि को खाली कराने के उद्‌गार? यह एक विडंबना ही है कि एक गीत जो औपनिवेशिक शोषण और गुलामी के विरुद्ध सारे भारतीयों को जोड़ने का मूलमंत्र बना, समकालीन स्वतंत्र भारत में 'भड़काने और विभाजित करने के आरोप का शिकार हो रहा है। इस गीत में कौन सी 'नकारात्मकता है?जिन कोटि-कोटि कंठ के कलकल निनाद की बात इस गीत में कही गई है क्या उसमें कोई जातीय या सांप्रदायिक सोच दिखाई देता है? जिन कोटि-कोटि भुजाओं की बात इसमें कही गई है क्या उसमें सिर्फ हिंदुओं की ही भुजाए हैं? 'सांप्रदायिक विभाजन गीत में नहीं, इसके इन वरिष्ठ व्याख्याकारों के दिमाग में है जो एक स्थानांतरण ट्रांस्फेरेंस की मनोरचना मेंटल मैकेनिज्म के चलते इस गीत पर आरोपित किया गया है।

Wednesday, May 27, 2009

तालिबान के पीछे है भारत स्थित 'देवबंद'

तालिबान के पीछे है भारत स्थित 'देवबंद'
इस्लाम के नाम पर अस्तित्व में आए 'पाकिस्तान' के हालत को देख कर भष्मासुर की कहानी याद आती है । वो कहानी आप सबने सुनी होगी । 'एक बार भगवान शंकर ने भष्मासुर को वरदान दे डाला कि जिसके सर पर हाथ रखेगा वह भष्म हो जाएगा । बस फ़िर क्या था , भष्मासुर ने वरदान का सबसे पहला प्रयोग शिवजी के ऊपर ही कर डाला । वो तो भला हो विष्णु जी का जिन्होंने मोहिनी रूप के पाश में फांस कर भष्मासुर को उसी वरदान के मध्यम से जला डाला । ' चिंता मत कीजिये ! अति संछिप्त रूप से इस कथा को बताने का उद्देश्य पाक में वर्तमान स्थिति को समझाना था । कहते हैं इतिहास ख़ुद को दुहराता है । सदियों पुरानी ये कहानी पहले भी अमेरिका में अलकायदा द्वारा दुहराई जा चुकी है, हालाँकि तब अमेरिका जल्द ही संभल गया था । लेकिन पाकिस्तान के संभलने की कोई उम्मीद नही दिखती ।पकिस्तान के निर्माताओं ने तो इसकी नीव ही लाखों लोगों के लाश पर रखी थी । अपने जन्म से लेकर अब तक पकिस्तान ने कभी ख़ुद के विकास के बारे में शायद ही सोचा हो । अरे ,सोचेंगे भी तो कैसे भारत का विनाश और दुनिया पर इस्लाम के एक छात्र राज कायम करने के अलावा इन्होने कुछ सोचा ही नही ! प्रकृति ने जब सब को एक नही बनाया फ़िर संसार में एकरूपता कैसे लायी जा सकती है ?विविधता ही तो संसार का नियम है पर ये बातें इनके पल्ले नही पड़ती । वैसे तालिबान के इतिहास को खंगाले तो इनका दोगलापन साफ़ दिखता है । तालिबान की यह विचारधारा, ७३ भागों(फिरकों) में बँट चुके इस्लाम की एक शाखा 'वहाब' से पैदा हुआ है । इतिहास में थोडी बहुत रूचि रखने वाले लोगों को वहाबी आन्दोलन के बारे में पता होगा । तालिबानी विचारधारा के केन्द्र में यही वहाबियों की सोच है जिसका वर्तमान में एक ही केन्द्र समस्त संसार में बचा है और वो है उत्तर प्रदेश का "देवबंद "। अब तालिबान के बारे में और विस्तार से समझने के लिए हमें वहाबियों के बारे में जान लेना चाहिए । वहाबी के अनुसारइस्लाम के अन्य धारा को मानने वाले भी काफिर हैं ।वो जो कहते हैं वही धर्म है ,वही शरियत है । अफ़गानिस्तान का तालिबान हो या पाकिस्तान का इनके कानून 'शरियत' कहीं से भी इस्लाम के अनुरूप नही है ।पकिस्तान में तालिबान का अस्तित्व में आना २००४ में संभव हुआ । अनेक राजनीतिकद्रष्टाओं का ऐसा मानना है कि इसकी गुन्जाईस शुरू से थी वस्तुतः पकिस्तान में तालिबान का उदय और इतनी तेजी से फैलना कोई अनापेक्षित घटना नहीं कही जा सकती । अनेक बार यह सवाल आता है कि ऐसे में भारत की भूमिका क्या होनी चाहिए ? भारत को खुश होने की जरुरत है या दुखी होने की ? जवाब भी वही है , हमें निश्चित तौर पर चिंतित होना चाहिए । बात पाक में तालिबान की उपस्थिति की नहीं है बल्कि हमारी चिंता का विषय पाक का परमाणु संपन्न राष्ट्र होना है । इस्लामाबाद से महज ६०-७० मील की दूरी पर तालिबान का शासन होना इस बात का सबूत है कि पाक-परमाणु हथियारों पर कभी भी कब्जा हो सकता है । भारत और अमेरिका समेत सम्पूर्ण विश्व की चिंता का विषय यही है । इसके अतिरिक्त एक और खतरा जो साफ़ दिख रहा है भविष्य में भारतीय तालिबान के उदय का , परन्तु हम उससे मुह फिराकर बैठे हैं । तालिबान को जन्म देने वाली संस्था "देवबंद " का भारत में होना क्या इस संभावना को जन्म नहीं देती ? दरअसल कहीं भी ऐसी संभावनाएं तब तक रहेगी जब तक साधारण मुसलमान अपने दैनिक व्यवहार में हर समय कुरान , शरियत या मुल्लाओं की तस्दीक़ को न छोड़ दे । और ऐसा मैं नहीं कह रहा बल्कि वर्षों तक संघ को पानी पी-पी कर कोसने वाले , हिन्दू धर्म को गलियां उगलने वाले , सदैव सेकुलर होने का दावा करने वाले , जामिया और अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में सम्माननीय श्रीमान राजेंद्र यादव जी कह रहे हैं । अब तो बात माननी पड़ेगी ! क्यों नहीं मानेगे कल तक तो इनकी हर एक बात ब्रह्म वाक्य थी अब क्या हुआ ?राजेंद्र यादव मई २००९ के हंस के सम्पादकीय में लिखते हैं कि ' मैंने चौविस वर्ष हंस में जिस तरह हिन्दू धर्म कि बखिया उधेरी है ,क्या मुसलमान रहते हुए वह संभव था ? नहीं ,मेरा कलम किया हुआ सर कहीं ऊँचे बांस पर लटका 'काफिरों' में अंजाम का खौफ पैदा कर रहा होता !'राजेंद्र यादव उसी सम्पादकीय में कहते हैं , क्या कुरान और शरियत के यही व्याख्याएं हैं जो तालिबानों के दिशा -निर्देश बनते हैं ? क्या शरियत आज की समस्याओं को हल करने के बजाय हमें १४०० साल पीछे के बर्बर कबीलाई समाज में लौटने की मानसिकता नहीं है ? आगे इसी बात को बढाते हुए , कुरान पर सवाल खड़े करते हैं और कहते हैं कि यह कौन सा नियम है जो हम कुरान को लेकर सवाल नहीं उठा सकते , मुहम्मद साहब को लेकर प्रश्न नहीं पूछ सकते ................ क्यूँ वो सवालों कि परिधि से बाहर हैं ? क्या १४०० वर्ष पूर्व दिए गए आदेश अपरिवर्तनीय और अटल सत्य है जो इस वैज्ञानिक युग में सवालो से परे हैं । ?फिलवक्त , पाकिस्तानी तालिबान के बढ़ते प्रभाव और भारत में उदय की आशंकाओं के बीच इस्लाम व शरियत में परिवर्तन को लेकर आवाज बुलंद होनी शुरू हो गयी है । आगे इसका क्या हश्र होगा , क्या हमारे यहाँ के धर्मान्ध मुल्लाओं और वोट बैंक के पुजारिओं के पल्ले इस परिवर्तन की जरुरत समझ आएगी या नहीं ? यह तो भविष्य के गर्त में हैं । हम तो अच्छे की उम्मीद ही कर सकते है और नेताओं को सलाह दे सकते हैं कि कृपा कर इस मुद्दे पर ओबामा की ओर न देखें तथा कुछ कड़े कदम उठायें ! ध्यान रहे राजीव गाँधी की तरह मुस्लिम समाज के वोट का भय न सताए वरना जल्द ही निकट भविष्य में भारतीय तालिबान का अस्तित्व में आना तय है ।

Monday, May 4, 2009

जामिया में ABVP की शाखा का खुलना एक ऐतिहासिक घटना

JAMIA MILLIA ISLAMIA में अपनी जान और कैरियर की परवाह न करते हुए आज हमारे साथ २०० से अधिक कार्यकर्त्ता कम कर रहे हैं । भारतीय इतिहास में पहली बार जामिया जैसे जगह जहाँ पर खुले आम लोकतंत्र की हत्या की जाती हो ,वहां अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की शाखा खुलना और महज एक साल के अंदर इतनी सदस्य संख्या तक पहुंचना एक क्रान्तिकारी घटना साबित होगी । कहते हैं न जल में रहकर मगर से बैर " वाली कहावत को हमारे जोशीले देशभक्त युवा कार्यकर्ताओं ने सच कर दिखाया है । पहली इकाई की बैठक में ४० लोगों की उपस्थिति मेरे लिए एक सुखद अहसास था । आख़िर मेरी मेहनत का फल था भाई ! अभी कुछ दिन ही बीते थे की अचानक बतला हाउस में आतंकियों के इन्कोउन्टर की घटना घटी । हमारे कुलपति मुशीरुल-हसन ने पकड़े गए आतंकियों को कानूनी मदद मुहैया कराने की घोसना की , तब हमने फ़ैसला किया विरोध का ।२५ सितम्बर ०८ जामिया में मुशीरुल हसन द्वारा आतंकियों के समर्थन में करीब ४ -५ हजार स्थानीय मुस्लिमो और छात्रों की भीड़ थी । हम भी खड़े थे बांकी बहरी लोगों के इन्तेजार में , तब हमारी संख्या भी लगभग ५० की थी लेकिन डी यु और अन्य जगहों से करीब ३२-३३ लोगों के पहुँचने तक १२ -१३ लोग बचे थे । हमने भी जम कर विरोध परदरशन किया और गिरफ्तारियां भी दी। कुल मिलकर इस घटना के बाद से जामिया में विद्यार्थी परिषद् के अस्तित्व का पता सब को चल गया है । अब हमें उम्मीद है आने वाले सत्र में और भी राष्ट्रप्रेमी हमसे जुडेंगे और हमारी इस वैचारिक लडाई को आगे ले जायेंगे । अंत में मुझे गर्व है जामिया इकाई के संथापक सदस्य होने का । जय हिंद ! वंदे मातरम ! भारत माता की जय !

R.S.S : A SOCIO -CULTURAL ORG.

आज कल जहाँ देखो संघ के खिलाफ खूब जहर उगला जा रहा है । नई पीढी के समक्ष संघ को फासीवादी और नाजीवादी सोच का बताया जा रहा है । । एक विवादित ढांचे और गुजरात दंगों का आरोप संघ परिवार पर लगा कर उसको सांप्रदायिक होने का सर्टिफिकेट दे दिया जाता है । वही बुद्धिजीवी और मीडिया संघ के हजारों समाजसेवा के कार्य को नजरंदाज करती रही है । संघ के सम्बन्ध में सदी के सबसे बड़े धर्मनिरपेक्ष नेता और हमारे बापू "महात्मा गाँधी जी " जिनकी हत्या का आरोप भी संघ पर लगा था , ने १६- ०९- १९४७ में भंगी कोलोनी दिल्ली में कहा था -" कुछ वर्ष पूर्व ,जब संघ के संस्थापक जीवित थे , आपके शिविर में गया था आपके अनुशासन , अस्पृश्यता का अभाव और कठोर , सादगीपूर्ण जीवन देखकर काफी प्रभावित हुआ । सेवा और स्वार्थ त्याग के उच्च आदर्श से प्रेरित कोई भी संगठन दिन-प्रतिदिन अधिक शक्ति वान हुए बिना नही रहेगा । "

बाबा साहब अम्बेडकर ने मई १९३९ में पुणे के संघ शिविर में कहा था - "अपने पास के स्वयं -सेवकों की जाति को जानने की उत्सुकता तक नही रखकर , परिपूर्ण समानता और भ्रातृत्व के साथ यहाँ व्यवहार करने वाले स्वयंसेवकों कोदेख कर मुझे आश्चर्य होता है । "
संघ के सन्दर्भ में एक अन्य घटना की जानकारी मुझे मिली थी जब मैं भी बगैर सोचे-विचारे संघियों को कट्टरपंथी बोला करता था । उस घटना का जिक्र आप के समक्ष कर रहा हूँ - ' सन १९६२ में चीन ने हिन्दी-चीनी भाई के नारे को ठेंगा दिखाते हुए भारत पर हमला कर दिया । भारत को अब किसी युद्ध में जाने की जरुरत नही है सेना का कम तो बस परेड में भाग लेना भर है की नेहरूवादी सोच के कारण सेना लडाई के लिए तैयार नही थी । तब तुंरत ही स्वयंसेवक मैदान में कूद गए । सेना के जवानों के लिए जी जन से समर्थन जुटाया वहीँ भारतीय मजदूर संघ ( ये भी संघ का प्रकल्प है) ने कम्युनिस्ट यूनियनों के एक बड़वार्ग्ग की रक्षा उत्पादन बंद करने की देशद्रोही साजिश को समाप्त किया । तब प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू संघ के कार्य से इतने प्रभावित हुए की कांग्रेसी विरोध को दरकिनार करते हुए २६ जनवरी १९६३ की गणतंत्र दिवस परेड में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया ।"
अन्य दो -तीन उल्लेखनीय सेवा कार्य जो मेरी स्मृति में है - *१९७९ के अगस्त माह में गुजरात के मच्छु बाँध टूटने से आई बाढ़ से मौरवी जलमग्न हो गया था । संघ के सेवा शिविर में ४००० मुसलमानों ने रोजे रखे थे । अटल जी जब वहां गए थे तो मुसलमानों ने कहा था -'अगर संघ नही होता तो हम जिन्दा नही बचते ।
'*१२ नवम्बर १९९६ चर्खादादरी , दो मुस्लिम देशों के यात्री विमानों का टकराना , ३१२ की मौत जिसमे अधिकांश मुस्लिम और भिवानी के स्वयंसेवकों का तुंरत घटना स्थल पर पहुंचना , मलवे से शव निकलना सारी सहायता उपलब्ध करना । इतना ही नही शवों के उचित रीति रिवाज से उनके धर्मानुसार अन्तिम संस्कार का इन्तेजाम करना । तब साउदी अरेबिया के एक समाचारपत्र 'अलरियद ' ने आर एस एस लिखा था- " हमारा भ्रम कि संघ मुस्लिम विरोधी है, दूर हो गया है । " अभी तक के लिए इतना ही आगे अगले भाग में .....................................................................................

Thursday, April 16, 2009

सर्वोच्च न्यायालय का आदेश भी कूड़ेदान में ....................

अभी पिछले दिनों ही राजस्थान हाई कोर्ट ने जयपुर बम धमाकों के बाद अवैध रूप से जयपुर में रह रहे बांग्लादेशियों को राज्य सरकार की ओर से वापस भेजने के कार्रवाई को वैध करार दिया था। अब बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या पर गंभीरता से संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें देश की सबसे बड़ी चुनौती बताया। अदालत ने कहा कि हर भारतीय के पास पहचान पत्र होना चाहिए खासकर सीमावर्ती इलाकों में यह तुंरत प्रभाव से आवश्यक कर दिया जाए। अवैध विदेशी नागरिकों को देश में रहने का कोई अधिकार नहीं है। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस केजी बालाकृष्णन, पी सथाशिवम तथा जेएम पांचाल की तीन जजों की पीठ ने ये सख्त टिप्पणियां अवैध बांग्लादेशियों को देश से बाहर निकालने के मुद्दे पर दायर आल इंडिया लायर्स यूनियन की जनहित याचिका पर विचार करते हुए की।पीठ ने पहचान पत्र पर काफी जोर दिया और कहा कि पहचान पत्र न रखने वाले को देश से बाहर खदेड़ दिया जाए। ऐसे व्यक्ति को नौकरी पर भी न रखा जाए। अवैध नागरिकों को नौकरी पर रखने वाले नियोक्ता को दंड देना चाहिए। नौकरी, शिक्षा और राशन का अधिकार देश के नागरिकों को है, घुसपैठियों को नहीं। एक अनुमान के अनुसार देश का कोई कोना ऐसा नहीं बचा हैं जहां इन घुसपैठियों को दखा न जा सके। पकड़े जाने पर सभी घुसपैठिये स्वयं को पश्चिम बंगाल का निवासी बताते हैं। सुनवाई के दौरान इस समस्या को पश्चिम बंगाल के वकील केके वेणुगोपाल ने रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि बंगाली और बांग्लादेशियों में सांस्कृतिक और परंगरागत समानताएं हैं जिसके कारण उनकी पहचान काफी मुश्किल हो जाती है।इसके अलावा अवैध नागरिकों को बांग्लादेश सरकार स्वीकार नहीं करती। सरकार कहती है कि निकाले जाने वाले नागरिकों को वह न्यायिक आदेश पर ही स्वीकार करगी। उन्होंने कहा कि अवैघ नागरिकों को निकालने के लिए सरकार के पास कोई तय प्रणाली नहीं है। इस पर कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि वह बांग्लादेश की सरकार से इस बार में बात करे। कोर्ट ने कहा कि यह कतई स्वीकार्य नहीं है कि स्वेदश वापस भेजने के लिए ट्रांजिट कैंप में रखे गए अवैध बांग्लादेशियों को वह सब चीजें मुहैया करवाई जाती हैं जो देश के सामान्य नागरिक को नही मिलतीं।कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिए और कहा कि बांग्लादेश से लगी सीमा पर पूरी तरह तारबंदी की जाए, जरूरत पड़ने पर इसके लिए भूमि अधिग्रहण हो, राष्ट्रीय पहचान पत्र बनाए जाएं। हालांकि कोर्ट ने माना कि यह कठिन कार्य है लेकिन कहा कि राष्ट्रहित में पहचान पत्र बनाना आवश्यक है। सरकार सीमा पर बीएसएफ की पर्याप्त बटालियनें मुहैया कराए ताकि घुसपैठ रोकी जा सके । सुनवाई के दौरान अतिरिक्त सालिसिटर जनरल अमरंद्र शरण ने कहा कि सरकार भी यही चाहती है कि कोई भी अवैध नागरिक देश में न रहे। याचिकाकर्ता के वकील ओपी सक्सेना ने कहा कि पिछली सरकार के समय भी राष्ट्रीय पहचान पत्र की बात उठी थी और इसके लिए एक पायलट प्रोजेक्ट भी तैयार किया गया था लेकिन कुछ नहीं हुआ। अब वर्त्तमान सरकार भी यही कह रही है।

प्रजातंत्र का राजवंश

लोकतंत्र मूर्खों का शासन होता है पर, यहाँ तो मूर्खों ने लोकतंत्र को हीं राजशाही की ओर ठेल दिया है। राजतन्त्र नहीं तो और क्या है? गाँधी, सिंधिया, पायलट, ओबेदुल्लाह जैसे खानदान ही शासन में बचे हैं। ये तो चंद बड़े नाम हैं छोटे-छोटे स्तरपर भी कई मंत्री - सन्तरी भी बाप दादा की कुर्सी जोग रहें है। आज भी तो वही हो रहा है, पहले ताजपोशी होती थी अब प्रक्रिया थोडी बदल गई है। सेवानिवृत होते-होते राजनेता अपने उतराधिकारी(भाई-बंधुओं) को मूर्खों की सभा में भेजते हैं, जहाँ उनको तथाकथित छद्म लोकतान्त्रिक तरीकों से चुना जाता है।लोकतंत्र के मंदिरों में बाप, बाप के बाद बेटा, फ़िर पोता! राजनीति का खून तो जैसे इनकी धमनियों में दौड़ता है। एक साथ दो -तीन पीढियां सत्ता का रसास्वादन कर रहीं हैं। सरकार से भी बुरे हालात हैं राजनीतिक दलों के, वहां तो बगैर चुनावी ढोंग अपनाए ही वंशवादी नेतृत्व का बोझ कार्यकर्ताओं के कन्धों पर सौंप दिया जाता है। ५० सालों से देश कि एक बड़ी पार्टी कांग्रेस नेहरू खानदान के चंगुल में फंसी हुई है । अब तक तो यही हुआ कि हर मुद्दे पर जनता की भावना को उभारकर कांग्रेस ने सालो तक राज किया । राजनीतिक रूप से थोड़े बहुत अधिकार देकर जनता को अहसान मंद बनाया गया । कभी आरक्षण , कभी ऋण माफ़ी का लोलीपोप थमाया गया ।चारों तरफ़ विकास का हंगामा ! हम भारतवासी विकास कर रहे है ! आज हमारे यहाँ कांग्रेस के राज मे ५२-५३ खरबपति है! कितनी गर्व की बात है भाई !गर्व करो ख़ुद के भारतीय होने पर ! गर्व करो कि हम पाश्चात्य सभ्यता -संस्कृति के अनुरूप ख़ुद को ढाल रहे है ! वाकई गर्व की बात है ! हम पीवीआर मे सिनेमा देखते है , हम मैकडी मे पिज्जा-बर्गेर खाते है , हम बड़ी बड़ी कारों मे घुमते है , हम चाँद पर जा पहुचे है, हमारे पास परमाणु शास्त्रों से लैस विश्व की दूसरी बड़ी सेना है(हाँ ये बात और है की हम बांग्लादेश जैसे पिद्दी राष्ट्रों से भी डरते है), हमारा विकास दर कुछ वर्षों मे बढ़ता रहा है (ये बात अलग है किअमेरिका मे मंदी की ख़बर मात्र से हमारा शेयर बाजार धराशायी हो जाता है)) और न जाने कितनी बातें गर्व करने लायक हो सकती हैं ।लकिन,महानगरों मे बसने वाले चंद अमेरिकापरस्त अथवा बाजारबाद के प्रचारक लोगों को हिंदुस्तान की तरक्की मानलेना न्याय पूर्ण होगा ? किसी ने सच ही कहा था -"सौ सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है , दिल पे रखके हाथ कहिये देश क्या आजाद है ? कोठियों से मुल्क की तक़दीर को मत आंकिये , असली हिंदुस्तान तो गाँव मे आवाद है। "क्या वर्षो के बाद भी हमारी तकदीर बदली है ? नही , कल भी कुछ अमीर थे और आज भी हैं । हमने सामाजिक समानता जैसे शब्दों को तो केवल संसद एवं भाषण तक सीमितकर दिया है ।भ्रष्टाचार को राजकीय धर्म बना दिया गया ,( जिसमे पुरे समाज की भूमिका है) लोकतंत्र में वंशवाद के बीज रोपे गए जिसे जनता ने भी एक -एक वोट से सींच कर उसे विशाल जंगल बना दिया है । परिवारवाद के अलावा अपराधीकरण की समस्या ने सियासत के तालाव को और भी गन्दा कर दिया है। एक समय था जब नेताजी अपने कुर्सी बचाए रखने के लिए गुंडे पालने लगे। धीरे -धीरे भूमंडलीकरण के बढ़ते प्रभाव ने गुंडों की समझ भी बढाईऔर वे भी सोचने लगे - भाई ,,जब इनकी जीत हम सुनिश्चित करते हैं तो क्यूँ न नेतागिरी का शुभ कर्म भी ख़ुद से किया जाए ?सामाजिक दायरा भी बढेगा और पुलिस का भय भी ख़त्म। इस तरह" राजनीती का अपराधीकरण, अपराध के राजनीतिकरण " में बदल चुका है। वो कहते हैं न, आटे में नमक मिलाना पर यहाँ तो नमक में आटा मिलाने का रिवाज है। भ्रष्टाचार रूपी विषाणु लोकतंत्र के राग-राग में फैलता जा रहा है । बेरोक-टोक । न तो उसके पास प्रतिरोध की ताकत बची है और न ही उसे बचाने का कोई प्रयत्न ही हो रहा है। बस बार -बार इलाज के नाम पर आश्वासन की गोलियां दी जाती है । आख़िर कब तक एक बीमार, दयनीय और जर्जर व्यवस्था यूँ चलती रहेगी ? हम गर्व करते हैं अपने लोकतंत्र पर। कहते हैं -हमारा गणतंत्र अभी शैशवावस्था में है, अरे इस विषाणु जनित महामारी के चपेट में कब बुढापा आ जाए पता भी न चलता है। अब, जबकि बुढापा आ ही गया है तो आत्मा कब इस बहरी ढांचे को छोड़ जायेगी कहना मुश्किल है? इसबीमारी ने देश की लोकतान्त्रिक प्रणाली को कहा पंहुचा दिया है इसका बयां शब्दों में कर पाना असंभव है । क्या -क्या बताये , किस किस कमी का बखान करें? सारी खामियों में एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है-'कमियों को दूर करने की इच्छाशक्ति का अभाव , भ्रष्टाचार की इस बीमारी से लड़ने की दृढ़ता का अभाव'। आज ६० -६१ वर्षों बाद भी हम रोटी , कपड़ा और मकान के झंझट में पड़े है , ऊपर से ये वंशवाद की बीमारी । ये सारी बुराइयाँ हमें खाए जा रही है । पर इस चिंता को त्याग कर हमें इसका विकल्प लोगो के समक्ष रखना होगा । भविष्य की राजनीति कैसी हो , इस पर केवल सोचने से नही बल्कि युवाओं को सक्रीय राजनीति में आना ही सबसे बड़ा विकल्प है ।

भारतीय राजनीति का यक्ष प्रश्न ...........



राहुल गाँधी की युवा ब्रिगेड( भलेही राजनीती में उनका प्रवेश अनुकम्पा के आधार पर हुआ हो ) से मुकाबला करने वाले कौन हैं ? यह भाजपा से लेकर तमाम दलों के लिए यक्ष प्रश्न बना हुआ है ।लेकिन इस सवाल का जबाब ढूंढने के बजायसभी इधर -उधर की बेकार दलील देकर ताल -मटोल करते नज़र आते हैं । इसी सवाल पर बहस के दौरान दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक छात्र नेता ने तर्क देते हुए युवा की जगह अनुभव को तरजीह देने की बात कही । कुछ अन्य युवा नेताओं ने उनकी बात का विरोध किया तो वो मुद्दे से भटक कर विचारधारा और हिंदुत्वा को परिभाषित करने लगे । अपनी आधी -अधूरी जानकारी और थोड़े बहुत महापुरुषों के कथन को तोड़- मरोड़ कर लगे भाषण देने । अभी टीवी में राजनाथ जी की भूलने की गाथा देख रहा था जिसमे वो यूपीए की जगह एनडीए , एनडीए की जगह यूपीए का नाम ले रहे थे । क्या यह घटना इनके खोखले युवापन के दावे को नही झुठलाती ?क्या भाजपा को युवाओं को आगे लाने की बात पर गंभीरता से सोच कर अमल करने की आवश्यकता नही है? क्या नरेन्द्र मोदी को अपनी महत्वाकांक्षा की आड़ में रोक कर युवा ब्रिगेड को पाँच साल पीछे नही कर दिया गया ?संगठन में तो वैसे भी ४० पार होने पर युवा की पदवी दी जाती है । ४६ वर्षीय राजीव प्रताप रुढी ,४० -४२ साल के सहनवाज हुसैन , आदि अधेड़ नेता युवाओं की श्रेणी में गिने जाते हैं । खैर इस लोकसभा की बात जाने दीजिये , अगले लोकसभा तक भी राहुल की फौज को टक्कर देने की कोई उम्मीद नही आती । जिस चीज को भाजपा की विशेषता मन जाता था आज वही बात ख़त्म हो रही है । विचारधारा और सुचिता को लेकर तटस्थ होने का दावा करने वाली बीजेपी आज अपने हीं उठाये गए सवालों से घिर गई है । पार्टी का सत्ता प्रेम उबाल कुछ इस कदर मार रहा है कि अपने कैडरों को भी भूलना जायज हो गया है। कुछ ही समय बीते विधानसभा चुनावों मे पार्टी ने दलबदलुओं को जम कर टिकट बाटने का काम किया । सालो तक पार्टी का झंडा उठाने वाले समर्पित कार्य कर्ताओं कि जगह अन्य दलों से बहलाफुसला कर आयातित नेताओ को तरजीह देने से दिनों-दिन कार्यकर्ताओं मे आक्रोश पैदा होना जायज़ है । आंकड़ों पर गौर करे तो ऐसे बाहरी नेताओं कीसंख्या काफी है।युवा नेतृत्व से जी चुराने की बात पर भाजपा के अन्दर भी काफी उथल-पुथल चल रहा है । कुछ लोग तो यहाँ तक कयास लगा रहे हैं कि लोक सभा चुनाव बाद पार्टी दो भागो में बट जायेगी । पार्टी में युवाओं की कमी तो है ही साथं ही रही रही-सही कसार ऊपर के लोगों द्वारा युवाओं की उपेक्षा से पुरी हो जाती है । पहले आर एस एस की विभिन्न सखाओं और परिषद् से विचारधारा के पक्के और पढ़े लिखे युवाओं की इंट्री युवा मोर्चा और भाजपा में हुआ करती थी । परिषद् हो या आर एस एस उनकी हालत आज खस्ता हाल है । इन सब के बावजूद जो थोड़े बहुत युवा यहाँ अपनी जगह तलाशने आते हैं अथवा यूँ ही कहें कि उनके पास कहीं और जाने का विकल्प नही होता , उनको युवा मोर्चे तक में पूछने वाला कोई नही ! परिषद् का परिचय देने पर बड़ी ही दयनीय भाव से देखता हुआ कोई भी ऐरा -गैर सलाह देने लग जाता है ।यह तो मेरे अनुभव हैं जो मैंने अपने आस पास देखा है । अब , आम चुनावों का नतीजा चाहे जो भी हो , अनुभव की बात कह कह कर कब तक युवा नेतृत्वा से जी चुरायेगी भाजपा ?

ऐसे यौवन को धिक्कार

आज भारत में युवाओं का बड़ा महिमामंडन हो रहा है । ७१% नौजवानों की आबादी वाले राष्ट्र में युवाओ की राजनीतिक स्थिति पर चुनाव विश्लेषक योगेन्द्र यादव ने एक सटीक प्रश्न उठाया है कि "क्या सचमुच इस देश में ऐसा नौजवान युवा वर्ग मौजूद है जो अपने बूते राजनीति-चुनावों की दिशा तय कर सके ? जब मैं देखता हूँ कि राहुल नाम का एक लड़का जो गमले का फूल है, हजारों कांग्रेसी युवा कार्यकर्ताओं के अधिकारों को रौंदता हुआ मात्र वंशवाद के बूते प्रधानमंत्री के पद की ओर मूविंग चेयर पर बिठाकर बढाया जा रहा है । पूरी कांग्रेस में एक भी भगत सिंह नही है , जो इस वंश गुलामी का विरोध कर कार्यकर्त्ता की मर्यादा की प्रतिष्ठा करे ? " पंडित जगनिक के शब्दों में कहें तो ऐसे यौवन को धिक्कार !

Tuesday, February 3, 2009

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अर्थ
लेखक- नरेन्द्र मोहन

हिंदुत्व एक ऐसी भू-सांस्कृतिक अवधारणा है, जिसमें सभी के लिए आदर है, स्थान है और सह-अस्तित्व का भाव भी। इस सह-अस्तित्व प्रधान सांस्कृतिक चेतना ने उसे अत्यंत उदार, सहिष्णु और लचीला भी बनाया। बात तब बिगड़ी जब विदेशी आक्रमणकारियों की संस्कृतियों ने इस अति सहिष्णु संस्कृति की उदारता का लाभ उठा कर इसकी जड़ें ही काटनी प्रारंभ कर दीं। हिन्दुत्व की इस अति-सहिष्णुता को उसकी कायरता माना गया तथा उसके जो भी मूल तत्व थे उन्हें नष्ट-भ्रष्ट करने की हर संभव चेष्टा की गई। अभी भी इस हेतु तरह-तरह के षडयंत्र रचे जा रहे हैं।आक्रमणकारियों के समक्ष पलायन करने की नीति का सह-अस्तित्व, सहिष्णुता के दर्शन और सिध्दांत से कुछ भी लेना देना नहीं है। सह-अस्तित्व व सहिष्णुता और 'आत्मवत्' दर्शन के जो भी शत्रु हैं उनसे मोर्चा लेने, युध्द करने तथा उन्हें पराजित करने का कर्त्तव्य-कर्म तो हिन्दुत्व का आधारस्तंभ अनादि काल से रहा है और रहेगा।जब-जब आक्रमणकारी शत्रुओं से युध्द करने में हिन्दुत्व से चूक हुई तब-तब न केवल अपमान सहना पड़ा है, बल्कि पराधीनता में भी रहना पड़ा है।आज हिन्दुत्व को राजनीति से जोड़ा जा रहा है। उसे एक राजनीतिक अथवा साम्प्रदायिक अवधारणा कह कर लांछित और अपमानित किया जा रहा है। दुख की बात यह है कि यह लांछन अभारतीय तो लगा ही रहे हैं, पर हम भारतवासी भी स्वयं लगा रहे हैं। स्वाधीनता के पहले हिन्दुत्व के प्रति अपमानजनक भाव रखने वालों की संख्या कम थी और केवल दुराग्रही व आक्रमणकारी संस्कृतियों के प्रति तुष्टिकरण का भाव रखने वाले ही 'हिन्दू' शब्द को साम्प्रदायिक बताते थे पर स्वाधीनता के बाद तो 'हिन्दुत्व' को गाली देना और उसका अपमान करना एक बौध्दिक फैशन बन गया और विडंबना यह है कि अपमान, लांछन व तिरस्कार के इस विष को बिना किसी प्रतिकार के 'प्रगतिवाद' के नाम पर सहन किया जा रहा है।लगभग दो हजार वर्षों की दासता ने यही सिखाया है कि विदेशी संस्कृतियां हमारा सहयोग नहीं करना चाहतीं, वे हमें तोड़ कर तथा धवस्त करके हम पर शासन करना चाहती है। विदेशी संस्कृतियां चाहती हैं कि भारत अपनी अस्मिता भुला दे, उसे छोड़ दें, अत: हमें विदेशी प्रचार के उनके प्रलोभनों के प्रति सावधान रहना होगा।भारत की मूर्छा धीरे-धीरे टूट रही है और यह एक शुभ लक्षण है। 'हिन्दुत्व' के प्रति जो भ्रम उत्पन्न किए गए हैं उन्हें भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक ने नकार दिया है।भारत के कुछ राजनीतिक दल अज्ञानवश आज भी हिन्दुत्व के प्रति शंकालु हैं। उन्हें हिन्दुत्व की ऊर्जा, उसका तप और उसका सर्वकल्याणकारी भाव ही नहीं दिखाई देता। ऐसे राजनीतिज्ञों से न तो डरने की आवश्यकता होती है और न ही चिन्तित होने की। हाल के वर्षों में वोट बैंक की राजनीति के दुष्प्रभाव में आकर हिन्दुत्व पर जितने अपमानजनक प्रहार किए गए हैं, वे चिंताजनक हैं। इन प्रहारों से भारत का आत्मविश्वास तो टूट ही रहा है, साथ ही नई पीढ़ी के भ्रमित होने की संभावनाएं भी बढ़ती जा रही हैं। नई पीढ़ी को भ्रमित करने में पश्चिम से आये सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का भी बहुत बड़ा हाथ है। यद्यपि पहले की तरह आज का विश्व राजनीति उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद से पीड़ित नहीं है, पर आने वाली शताब्दी में आर्थिक, सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की समस्याओं से मानवता को जूझना ही होगा। सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की तीन धाराएं इस समय विश्व में प्रबलता से चल रही हैं-पहली धारा ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित, पोषित और समर्थित, दूसरी, इस्लामी रूढ़िवादिता से संचालित, पोषित और समर्थित। इस्लाम के अनेक पक्षधार अत्यधिक आक्रामक व दुराग्रही हो चुके हैं। वे इतने अधिक असहिष्णुता-प्रधान हैं कि समस्त विश्व का इस्लामीकरण करने के लिए प्रतिबध्द हैं।सांस्कृतिक उपनिवेशवाद की तीसरी धारा 'साम्यवादी विचारधारा' अर्थात् वामपंथी विचारधारा है। यह चुनौती प्रत्यक्ष कम प्रच्छन्न अधिक है।राष्ट्रीय अज्ञान व विभ्रम की यह स्थिति आज हर स्तर पर है और सर्वाधिक उस वर्ग में है जो राजनीति से जुड़ा हुआ है। राजनीति से जुड़ा यह वर्ग भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्तवों से न केवल अनभिज्ञ है वरन वह भारत के सांस्कृतिक व्यक्तित्व को पश्चिमी विचारकों की ही दृष्टि से देखना चाहता है। निस्संदेह भारतीय संस्कृति के संदर्भ में सर्वाधिक विभ्रम अंग्रेज इतिहासकारों ने फैलाया है। ऐसा इसलिए किया गया जिससे भारतीय जनमानस हमेशा-हमेशा के लिए अंग्रेजियत की दासता स्वीकार कर ले तथा भारत पर अंग्रेजी सत्ता का प्रभुत्व बना रह सके।भारतीय एकता और अखंडता को सबसे बड़ा खतरा उस अंग्रेजियत से है जिसका एकमात्र लक्ष्य भारतीय संस्कृति को लांछित करना और भारत को मानसिक स्तर पर विभाजित रखना रहा। यद्यपि रानाडे, लोकमान्य तिलक, मदन मोहन मालवीय, महर्षि अरविंद, डा0 केशवराम बलिराम हेडगेवार और महात्मा गांधी सरीखे नेताओं ने अंग्रेजों की कुटिलता की कड़ी से कड़ी भर्त्सना की पर कुल मिलाकर भारतीय राजनीति का मन संशयग्रस्त ही रहा और रह-रह कर यह विचार ज्वार-भाटे की तरह उठता और गिरता रहा कि भारत की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति है भी या नहीं। भारत की अपनी एक संस्कृति है, इसका सबसे प्रबल विरोध उस समय प्रारंभ हुआ जब मुस्लिम लीग की स्थापना की गयी। उन्नीसवीं व बीसवीं शताब्दी के भारतीय राजनीतिज्ञों से सबसे बड़ी भूल यह हुई कि उन्होंने 'हिन्दू' के संदर्भ में उस परिभाषा को ग्रहण कर लिया जो अंग्रेजों द्वारा बनाई गई थी।'हिन्दू' शब्द एक भू-सांस्कृतिक अवधारणा की उपज है, यह यथार्थ पता नहीं कैसे भारत में निरन्तर उपेक्षित होता चला गया और यह मान्यता प्रगाढ़ता से भारतीय मन पर छा गई कि 'हिन्दू' एक वैसा ही मजहब है जैसे कि इस्लाम या ईसाइयत।आश्चर्य की बात यह है कि जो भूल इस्लामी आक्रमणकारियों ने भ्रमवश की थी और जिस भूल को अपनी निहित स्वार्थों के कारण अंग्रेजों ने सैध्दांतिक व वैचारिक जामा पहना दिया उसे हम भारतीयों ने भी धीरे-धीरे बिना प्रतिरोध के स्वीकार कर लिया और परिणामत: सांस्कृतिक स्तर पर नए विभ्रम को जन्म दिया।अंग्रेजी दासता के दौरान भारतीय संस्कृति की इतनी अधिक दुर्दशा कर दी गई कि उसकी सांस्कृतिक व आध्‍यात्मिक शब्दावली तक को भ्रष्ट किया गया और इस शब्दावली के राजनीतिक अर्थ निकाले गए। उदाहरणस्वरूप 'धर्म' शब्द का जैसा मनमाना अर्थ अंग्रेजों ने किया उसके पीछे उनके स्वयं के निहित स्वार्थ थे। उन दिनों यह भी स्थापित करने का प्रयास किया गया कि भारत कभी एक राष्ट्र था ही नहीं, वह तो अंग्रेजों ने आकर इसे राजनीतिक एकता प्रदान कर दी।प्राचीन भारत की साहित्यिक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक उपलब्धियों को पश्चिम का उच्छिष्ट सिध्द करने के प्रयत्न किए गए और समूचे भारतीय जीवन को आत्मगौरव शून्य एवं आत्मविस्मृत बनाने की दुरभिसंधि रची गयी। एक राष्ट्र के नाते हमारे पहचान के जितने तत्व हो सकते थे अंग्रेज उन्हें पूर्णत: नष्ट या विकृत करने का प्रयत्न करते रहे।मजेदार मामला यह है कि जब भारत का संविधान रचा गया तब न तो भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्वों की ओर ही गंभीरता से निहारा गया और न भारतीय मूल्यों, आदर्शों व श्रेष्ठ परंपराओं तथा भारतीय मन की अभिलाषाओं को ही समझने का प्रयास किया गया। भारतीय संविधान को बनाया गया तो भारत की जनता के लिए, लेकिन भारत की जनता के मन में क्या है, कहां बसती है, उसकी आस्थाएं किस पर हैं, उसका विश्वास क्या रहा है, किन मूल्यों की रक्षा के लिए लगभग डेढ़ हजार वर्षों तक उसने विदेशी आक्रमणकारियों से संघर्ष किया, यह सब जानने की चेष्टा ही नहीं की गई।ब्रिटिश साम्राज्यवाद को स्थायित्व प्रदान करने के निमित्त मैकाले ने तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक के सहयोग से संस्कृति पर प्रहार करने में जो सफलता प्राप्त कर ली उस आघात से भारत आज भी नहीं उबर पा रहा है।जीवन की विश्वात्म धारणा को प्रतिपादित करने वाला भारत, जिसका कभी विश्वास रहा, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' पर वह दुष्प्रचार का शिकार होकर स्वयं ही अपने मूल्य छोड़ बैठा और सांस्कृतिक रूप से बिखर गया। यह सांस्कृतिक बिखराव आज भी राजनीति में हर स्तर पर हमें दिखाई दे रहा है।ऐसा नहीं है कि भारत की संविधान सभा में भारतीय संस्कृति एकात्म भाव तथा राष्ट्रीयता के पक्षधार नहीं थे, पर वे कुल मिला कर मौन ही रहे। जब 7 और 8 दिसम्बर, 1948 को संस्कृति से जुड़े अनुच्छेद पर संविधान सभा में चर्चा हो रही थी तब केवल लोकनाथ मिश्र ने भारत की सांस्कृतिक धरोहर को मान्यता देने का सुझाव दिया था पर उसका उग्र विरोध मुस्लिम सदस्यों द्वारा हुआ और अंतत: 'भारत एक सांस्कृतिक इकाई है तथा उसे अपनी सांस्कृतिक धारोहर की रक्षा करनी है', यह भाव इस विरोधा के कारण भारतीय संविधान का अंग न बन सका।प्राकृतिक अनेकता में मानसिक एकता के जो सूत्र विद्यमान रहते हैं उनसे ही राष्ट्र का और उसकी संस्कृति का निर्माण होता है।इस मानसिक एकता से ही अंतत: राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण भी होता है और इस राष्ट्रीय चरित्र में विभिन्न मूलवंशों के लोग सहभागी और सहयोगी होते हैं। इस सामूहिक अस्मिता के अभाव में राष्ट्र की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। इस सामूहिक अस्मिता का जन्म भारत में कहां से हुआ? यह अस्मिता किन प्रतीकों व आदर्शों से जुड़ी है? कौन हैं इस सामूहिक अस्मिता के प्रेरणास्रोत आज इस प्रश्नों पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। यह आवश्यकता इसलिए और भी महत्वपूर्ण तथा तात्कालिक हो चुकी है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद उन्तीस में यह प्रतिपादित करके कि हर व्यक्ति को अपनी एक पृथक वैयक्तिक संस्कृति है-एक प्रकार से बिखराव व बिखंडन के बीज बो दिए गए हैं। सिध्दांतत: किसी भी व्यक्ति का कोई भी अधिकार राष्ट्र से ऊपर नहीं हो सकता। हर नागरिक को अंतत: राष्ट्रीय हितों को ही सर्वोच्चता प्रदान करनी होगी।अपने राष्ट्र की संस्कृति के रहस्य को भारत के राजनीतिज्ञ इसलिए नहीं समझ सके, क्योंकि वैयक्तिक स्तर पर वे न तो अज्ञात में छलांग लगाने के लिए तैयार थे और न अपने उन राजनीतिक स्वार्थों व पूर्वाग्रहों को छोड़ने के लिए तैयार थे जो उन्होंने यूरोपीय प्रभाव के कारण प्राप्त किए थे। स्वतंत्रता के उपरांत भी स्थिति में कोई बड़ा बदलाव आया हो, यह नहीं कहा जा सकता।जब भारत स्वतंत्र हुआ तो उस समय यदि पं। नेहरू चाहते तो भारतीय संस्कृति को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर सकते थे और भारत की जो गौरवशाली सांस्कृतिक परंपरा है उसकी रक्षा भी कर सकते थे, पर वे स्वयं के राजनीतिक स्वार्थों और यूरोपीय प्रभाव से इतने अधिक जुड़े रहे कि अगर यह कहा जाए कि इसके दुष्प्रभाव से भटक गए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।यह बात एक बात बहुत स्पष्ट रूप से समझ ली जानी चाहिए कि भारत एक राष्ट्र है और इस राष्ट्र की अपनी एक संस्कृति है। अगर भारत के राजनीतिज्ञ इस सत्य का साक्षात्कार करने से इंकार करेंगे तो राष्ट्र की प्रभुसत्ता और अखंडता संकट में पड़ सकती है। संकट में इसलिए पड़ सकती है क्योंकि फिर वे समस्त तत्वहीन और श्रीहीन हो जाएंगे जिन पर इस राष्ट्र का एकत्व आश्रित होता है। राजनीति का पहला कर्त्तव्य यह है कि वह राष्ट्रीय एकत्व के प्रति समर्पित हो। यदि राजनीति राष्ट्रीय एकत्व के प्रति समर्पित नहीं है और उसे राष्ट्र की प्रभुसत्ता और अखंडता की चिंता नहीं है तब फिर ऐसी राजनीति कलह को ही जन्म देगी। भारत की सांस्कृतिक एकता का अर्थ यह नहीं है कि भारत में अनेक संस्कृतियां हैं बल्कि इसका अर्थ यह है कि इस राष्ट्र की अपनी एक संस्कृति है और यह एक ऐसी संस्कृति है जो अनेकता को प्रश्रय देती है।अंग्रेजों ने इस झूठ को सौ बार दोहराया कि मजहब के आधार पर देश को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक बनाया जा सकता है, लेकिन अंग्रेजों ने अपने देश में ऐसा नहीं किया। इंग्लैण्ड में तो ईसाइयों के अनेक पंथ है, लेकिन विभिन्न पंथों को मानने वाले अंग्रजों को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच विभाजित नहीं किया गया। सच बात तो यह है कि राष्ट्रीयता का संबंध उपासना पध्दति की विभिन्नता से नहीं होना चाहिए। राष्ट्रीयता उपासना पध्दति से कहीं अधिक विशाल, उदात्त और श्रेष्ठ है।हिन्दुत्व पंथ नहीं है, मजहब नहीं है, वह पंथ या मजहब हो ही नहीं सकता। मजहब या पंथ के उसमें कोई गुण ही नहीं हैं। जिसमें अनंत जीवन दर्शन, अनंत पंथ, अनंत जीवन-शैलियां, अनंत उपासना-पध्दतियां समाहित हो, उसे कोई किसी एक परिभाषा से कैसे बांधोगा? हिन्दुत्व का सारा प्रयास सामंजस्य एवं एकरसता प्राप्त करना है, सभी सुखी हों, सभी का कल्याण हो, सभी की समृध्दि हो, सभी में मित्रता हो, सभी एक दूसरे के सहयोगी बनें, कोई किसी से द्वेष न करे। ये सारे प्रयास हमें वर्तमान में ही करने होंगे।हिन्दुत्व वर्तमान मेंसत्य का साक्षात्कार ही हिन्दुत्व का प्राणतत्व है और यह साक्षात्कार हमें वर्तमान में करना होता है। अतीत के गुण गाकर हम सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकते। अतीत में क्या था, यह तो इतिहास की बात हो गई, पर क्या होना चाहते हैं, किनकी नकल करना चाहते हैं यह हुई कल्पना की बात। कोई भी समाज इतिहास के कल्पना लोक में जीकर विश्व को नेतृत्व नहीं दे सकता और भविष्य की कोरी कल्पनाओं के आधार पर भी किसी भी समाज ने उन्नति नहीं की है। हिन्दुत्व का आधार है 'चरैवेति'। हिन्दुत्व में ठहराव नहीं है। यह ठीक है कि किन्हीं कारणों से हिन्दुत्व नीचे गहरी खाई में जा गिरा है और यह संभवत: इसलिए हुआ होगा क्योंकि यह प्रकृति का नियम है, लेकिन अब यह कालचक्र उत्कर्ष की ओर बढ़ रहा है। उचित यह होगा कि भारतीय समाज यह समीक्षा करें कि उसके उत्कर्ष में क्या सहायक है और क्या अवरोधक?हिन्दुत्व किन्हीं कारणों से जो भटकावग्रस्त हुआ है, उससे समाज में कलह बढ़ी है, विघटन बढ़ा है, विद्वेष बढ़ा है और दुष्कर्म बढ़ा है तथा उत्कर्ष के स्थान पर पतन हुआ है।हिन्दुत्व का सनातन प्रवाह, जो हमारी राष्ट्रीय चेतना की मुख्यधारा है, उसे शक्तिवान बनाने के स्थान पर यदि कोई उसे प्रदूषित कर रहा है अथवा किसी कारणवश वह प्रवाह प्रदूषणग्रस्त होता चला जा रहा है, तो हमें प्रदूषण की इस सत्यता को स्वीकार करना ही होगा। कपोतवृति अपनाकर हम यथार्थ की उपेक्षा तो कर सकते हैं पर यथार्थ के सत्य को नष्ट नहीं कर सकते।ऐसा नहीं है कि भारतीय समाज ने जिसे आज 'हिन्दू समाज' कहकर संबोधिात किया जाता है उसने समय-समय पर स्वयं की दुर्बलताओं को दूर करने के लिए संघर्ष नहीं किया। समाज सुधारकों का भी जन्म हुआ, पर जो भी आज तक हुआ है, वह बहुत ही आधार अधूरा है। न तो हमने अंधाविश्वास पर पूर्णत: विजय पाकर बुध्दि व विवेक की सत्ता पुन: स्थापित की है और न पाखंड का ही पूर्ण परित्याग कर अपनी कथनी-करनी के भेद को ही मिटाया है। जाति-प्रथा व वर्ण व्यवस्था में आज सर्वाधिक सहारा मनुस्मृति का लिया जाता है और यह जाने समझे बिना कि मनुस्मृति के नाम जो ग्रंथ बाजारों में बिकता है, वास्तव में क्या है।यह निर्विवादित रूप से सिध्द हो चुका है कि आज जिस ग्रंथ को 'मनुस्मृति' के रूप में जाना जाता है, वह किसी व्यक्ति ने नहीं लिखा, इस ग्रंथ को एक कालखंड में भी नहीं लिखा गया और समय-समय पर स्वयं के स्वार्थों की रक्षा के लिए इसमें ऐसे विचारों को भी जोड़ दिया गया जो परस्पर विरोधी है। क्या यह स्वयं में एक क्रूर व्यंग्य नहीं है कि जिस 'मनुस्मृति' का आधार लेकर आज जन्म आधारित जाति व वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया जाता है, उसी व्यवस्था का विधान है कि कर्म के बदलते ही वर्ण भी बदल जाता है।हिन्दुत्व की इस दुर्बलता को कैसे सुधारा जाए, यह एक बहुत बड़ी समस्या है। अब यदि भारत का पूरा का पूरा मन नहीं बदलता तो उसके जीवन-दर्शन में जो भारी गिरावट आ गई है उसे ठीक नहीं किया जा सकता। पर राष्ट्र एवं समाज का मन बदलने के लिए जैसे प्रयास होने चाहिए, उस ओर ध्‍यान देने की चेष्टा नहीं की जा रही है। भारतीय जीवन दर्शन के मन में जो दुर्बलताएं आ गयी हैं उन्हें दूर करने का काम समाज के सभी वर्गों को एकजुट होकर करना होगा। केवल कानून बना देने से भारतीय समाज स्वयं को पतन के गर्त से बाहर नहीं निकाल सकेगा।(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक थे)

Monday, February 2, 2009

लो कर दिया दो कदम और पीछे .........................

कांग्रेस सरकार में कुछ मंत्री हमेशा चर्चा में रहे। शिवराज पाटिल नामक शख्स जो अब चले गये हैं, रामादौस जिन्होंने एम्स को बीमार कर रखा है और तीसरे हैं अर्जुन सिंह। समझ में नहीं आता कि चाहते क्या हैं। आरक्षण नाम की बैसाखी तो इन्होंने पहले ही हाथों में दे रखी है। जो सीटें आरक्षित होती हैं वे दाखिले की प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी नहीं भरती। फिर भी उन्हें बढ़ा दिया गया वो भी जाति के नाम पर। आर्थिक आधार होता तो समझ भी आता। आंध्र में सीटें बाँटी जाती हैं धर्म के नाम पर। फिर भी सरकार अपने को सेक्युलर कहती है। सुप्रीम कोर्ट कहता है कि बची सीटें जनरल छात्रों को दी जायें तो उस पर अमल नहीं होता, उलटा कोर्ट को अपनी हद में रहने की सलाह दी जाती है। खैर अभी मामला आरक्षण का नहीं। मानव संसाधन मंत्रालय कुछ और ही करने की तैयारी में जुटा है। देश भर में जितने मदरसे हैं उनसे पढ़े गये छात्र वही दर्जा पायेंगे जो सी.बी.एस.ई. से उत्तीर्ण छात्र पाते हैं। कहने का मतलब ये कि मेहनत करने की, रात भर जागने की जरूरत नहीं है। कारण बताया गया है कि मुस्लिम छात्र भी आम छात्रों की तरह आगे आ पायेंगे। आपको मदरसों से भी वही सर्टिफिकेट मिलेगा जो आम स्कूल से पास करने पर मिलता है।इसमें कोई दोराय नहीं है कि इस देश में मुसलमानों का फायदा उठाया गया हैयदि ऐसा न होता तो आजादी के ६० बरस बाद भी शिक्षा के मामले में पिछड़े न कहलाते। वे शिक्षा के मामले में पिछड़े हैं इसमें भी किसी को कोई शक नहीं होना चाहिये। लेकिन सर्टिफिकेट बाँटे जाने का तरीका ठीक नहीं। सरकार चाहे तो मुस्लिम बहुल इलाकों में स्कूलों की तादाद बढ़ा सकती है। उन्हें जागरूक कर सकती है। मुझे नहीं पता और न ही लगता है कि मदरसों में वही पढ़ाई होती है जो कि बोर्ड करवाता है। इस तरह से हम उन्हें और भी कमजोर कर देंगे। वे बोर्ड से पास हुए छात्र के बराबर दर्जा तो पा लेंगे पर पढ़ाई में फिर भी पिछड़ जायेंगे। गलत तरीके से फायदा उठा कर पहले से ही त्रस्त समुदाय के वोट माँगने में ये सरकार कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती तीन विश्वविद्यालयों- जामिया हमदर्द, जामिया मिलिया और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में स्नातकोत्तर में दाखिले के लिये मदरसों के सर्टिफिकेट मान्य हैं। मानव संसाधन ने यूजीसी को कहा है कि बाकि विश्ववैद्यालयों में भी इसे लागू किया जाये। परन्तु इसका विरोध होने के कारण यूजीसी ने एक कमेटी बैठाने का निर्णय लिया है।आई.आई.टी और आई.आई.एम जैसे संस्थानों में आरक्षण दे कर भारत में शिक्षा के स्तर को मंत्रालय पहले ही गिरा चुका है। कहीं ये कदम भी गलत राह पर न पहुँचा दे।

Thursday, January 29, 2009

संभलो ए फिजाओं ..........

चंद्र मोहन से चांद मोहम्मद हुए, अपनी प्रेमिका को फिज़ा का नाम दिया..प्यार मोहब्बत की कसमें खाई.. घरबार छोड़ा, पत्नी से नाता तोड़ा .कुर्सी से हटाये गये ,जायदाद से बेदखल हुये.. फिज़ा के लिये .. और फिर फिज़ा को छोड़ कर लापता हो गये। फिज़ा ने खुदकुशी की कोशिश की..एक हवलदार की गोद में अस्पताल तक पहुची।चांद दिखता है खुले आकाश में, फिज़ा उसको ज्यादादेर तक छुपा कर नहीं रख सकती है ... ये हक़कीत है ..जिसे न जाने क्यों फिज़ा भूल गई और हम टीवी वालों को याद न रहा ... इस कहानी पर थोड़ी देर में आयेगें..अभी तवारिखों के पन्नों को पलट कर कुछ समझने के लिये थोड़ा पीछे चलते हैं ..धर्मेन्द्र और हेमा की शादी की तरफ...इन्होने भी इस्लाम कबूल कर शादी की ..दो बेटियों को जन्म दिया .. पर धर्मेन्द्र अपने पुराने परिवार के पास वापस चला गया..हेमा आज कुछ भी कहे अपने सम्मान मे कसीदे पढ़े धर्मेन्द्र को सर आंखों में बिठायें पर कहीं न कहीं वो अपने को ठगा महसूस करती होगीं..आज जब भी उनके और धर्मेन्द्र का ज़िक्र आता है तो साथ ही एक लम्बी कहानी ..सब को सुनाई जाती है ..। जिस धर्म के तहत शादी की वो महज़ब छो़ड़ दिया ..तो उन बच्चों को क्या कहेगें जो उन दोनो से हुए.. जायज़ या नाजायाज़।पहेली बात इस्लाम कबूल करना इतना आसान नहीं होता और दूसरा छोड़ना तो नामुमकिन होता है .. धर्म है दुकान नहीं है .जब चाहो आजाऊ जब चाहो चले जाऊ..आईये फिज़ा की बात करते हैं..चांद को भी देखा लोगो ने और फिज़ा को भी कहीं से दोनो का कोई मेल नही था ..जो मेल था वो इतना की एक के पास दौलत थी और दूसरे का पास सुदरता.. फिर वो ही हुआ जो होता आया है दौलत ने हुसन जीत लिया..एक इतने अच्छे धर्म का ग़लत इस्तमाल कर दोनो दुनिया को दिखाने के लिये एक हो गए..चाहत दोनो की थी ऐश के दोनो तलबदार थे ..कहते हैं गरीब की जोरू सबकी भाभी ..आटे दाल का भाव पता चलते ही मोहब्बत रफू चक्कर हो गई.. कौन फिज़ा और किसका चांद.. चंद्र मोहन था तभी तो फिज़ा मिली ।चांद हुआ तो गरदीश में छुप गया ..फिर चंद्र बनू गा तो फिज़ा क्या रौनक और बहार दो आ जायेगें.. अभी मामला गर्म हैं, रोना पीटना ,इसकी बात, उसकी बात सुनने को मिलेगी पर चांद अपनी सीमा में वापस लौट जायेगा ..हां फिज़ा को छोड़ें गा नही.. हफ्ते,महीने या कुछ दिनों के बात दो तीन दिन के मेहमान के तौर पार आता रहेगा.. फिज़ा भी समझौता कर लेगी और सीमा भी ..क्यों कि चांद पर तो सब का हक़ होता है ..इस बात को बताने का मतलब ये है कि कोई और फिज़ा बनने से पहले अंजाम को सोच ले..प्यार,इशक, टीवा में इंट्रव्यू देने के लिये सही है पर हक़कीत में बहुत दर्द है ..अंत में ये ही कहूंगा ऐ फिज़ाओं संभल जाऊ......

दाढ़ी वाले तालिबानी नही दीखते .............धोती-चोटी वाले जरुर दिख जाते हैं .........

न्यूज़ चैनलों को लंबे समय बाद समय बाद इतना चटपटा और धमाकेदार मसाला मिला है । चांद मोहम्मद के घर से गायब होने की खबर आते ही लंबे समय से सूखॆ की मार झेल रहे खबरचियों ने डेरा डाल लिया और पल - पल की एक्सक्लूसिव तस्वीरें और खबर अपने दर्शकों तक पहुंचाने में जुट गये । अभी ज़्यादा वक्त नहीं बीता ,जब मीडिया ने सरकारी नियंत्रण को मीडिया जगत पर हमला बताया था और आत्म नियंत्रण का भरोसा भी दिया था । लेकिन ये क्या ...? कल तक जो चैनल तालिबानी वीडियो दिखाने वाले चैनलों की पोल खोल रहा था , आज वो भी फ़िज़ा और चांद से जुडी खबरों को फ़िल्मी गानों की चाशनी में "पाग" कर दर्शकों को परोस रहा था । समाचार जानने के उत्सुक लोगों को वो टेबलेट्स दिखाई जा रही थी , जिनको खाकर फ़िज़ा ने मीडिया को इतनी ज़बरदस्त स्टोरी तैयार करने का मौका दिया ।इस शोरशराबे में लेकिन एक अहम सवाल कहीं गुम हो गया है । औरत के अस्तित्व का सवाल । पूरा देश "शरीया कानून" की आड में मज़हब का मखौल उडाने का तमाशा देखता रहा । कहीं कोई आवाज़ नहीं , कोई चिंता नहीं । चार दिन बीते नहीं कि प्रेम का बुखार उतर गया ।कानून की जानकार और अपने हक को बखूबी समझने वाली एक ऎसी औरत ,जो अपने प्यार को पाने के लिए हरियाणा जैसे रुढिवादी समाज से भी नहीं हारी ,अगर मौत को गले लगाने का फ़ैसला लेती है , तो क्या औरतों के हक के लिए लडने वालों के लिए चुनौती पेश नहीं करती । इस मामले के साथ देश में बडे पैमाने पर महिलाओं के हक से जुडे मुद्दों पर नई बहस होना चाहिएसाथ ही सभी को एक ही कानून के दायरे में लाने की बात भी होना चाहिए । " एक मुल्क - एक कानून " के ज़रिए ही देश को एकता के सूत्र में बांध कर रखा जा सकता है और कानून की आड में महिलाओं के जज़्बातों से खिलवाड करने वालों पर शिकंजा कसा जा सकता है ।मंदी से उपजे संकट के दौर में लगता है एनडीटीवी ने नई सोच के साथ नई पहल की है । इसी कडी में मतदाताओं को सिखाने - पढाने के लिए रवीश कुमार के सौजन्य से प्रोग्राम बनाया गया । उनकी पेशकश की तारीफ़ करने को मन हो ही रहा था , तभी देश के मतदाताओं को पूजा - पाठ और धर्म के नाम पर ठगने वाले हिन्दुस्तानी तालिबानियों का ज़िक्र छेड दिया रवीश जी ने । लेकिन ये तालिबानी धोती - टीके वाले ही थे । टोपी और दाढी वालों का कोई ज़िक्र तक नहीं ....। आजकल मंदी के कारण नौकरी पर भारी पड रहे सर्कुलरों से खिसियाए खबरची क्या नया कहना चाहते हैं ....? आखिर क्या सिखाना चाहते हैं ...? "धोती - टीके वाले तालिबानी" का जुमला गढकर एक तबके को गरियाने से ही इस देश में सेक्यूलर कहलाया जा सकता है ? इन चैनलों ने जिस ढंग से हिन्दुओं की छबि गढ दी है , अब हिन्दू कहलाना किसी गाली से कम नहीं .....।आज आज़मगढ के करीब एक हज़ार लोग एक ट्रेन में सवार होकर दिल्ली क्या पहुंचे , देश की राजनीति में उफ़ान आ गया । आईबीएन और सहारा समय लगातार ट्रेन और रेलवे प्लेटफ़ार्म की फ़ुटेज दिखा दिखा कर माहौल गर्माते रहे । गौर करने की बात है कि ट्रेन को उलेमा एक्सप्रेस का नाम तक दे दिया गया बैनर लगाकर । उस पर भी तुर्रा ये कि रेल प्रशासन और पुलिस पर प्रताडना का आरोप जड दिया । शिकायत थी कि ट्रेन जगह- जगह रोकी क्यों नहीं गई ।बाटला हाउस एनकाउंटर मामले में आतंकवादियों की कारगुज़ारियों पर पर्दा डालने के लिए मौलाना अमर सिंह और अर्जुन सिंह के बोये बीज अब पनपने लगे हैं । उलेमाओं का जत्था दिल्ली पहुंचकर मामले की एक महीने में न्यायिक जांच का दबाव बना रहा है । उन्होंने सरकार को आगाह भी कर दिया है कि जल्दी जांच रिपोर्ट नहीं आने पर मुसलमान कांग्रेस को एक भी वोट नहीं देंगे । ये लोग कौन हैं ...? क्या ये वाकई इस देश के नागरिक हैं ...? अगर जवाब हां है , तो कैसे नागरिक हैं ,जिन्हें अपने शहर के लडके तो बेगुनाह और मासूम नज़र आते हैं , मगर दहशतगर्दी के शिकार लोगों के लिए इनके दिल में ज़रा भी हमदर्दी नहीं ? कल को मुल्क में कहीं भी आतंकी पकडे या मारे जाएंगे , तो हर मर्तबा यही सवाल खडे होंगे । पाकिस्तान या बांगला देश के रास्ते भारत आकर दहशत फ़ैलाने वाले ज़ाहिर सी बात है मुसलमान ही होंगे , तो क्या उनकी हिमायत में उठने वाली आवाज़ों के बूते उन्हें बेगुनाह मान लिया जाना चाहिए ?एक न्यूज़ चैनल के जाने माने क्राइम रिपोर्टर के ब्लॉग पर बाटला हाउस मामले के आरोपी के घर की बदहाली का सजीव चित्रण देखा था । उनकी दलील को मान लिया जाए तो कोई भी गरीब अपराधी या दहशतगर्द नहीं हो सकता । लगभग वैसी ही परिस्थिति कसाब के परिवार की भी है , लिहाज़ा ये माना जा सकता है कि मोहम्मद अजमल कसाब भी मासूम है ?????? उस बेगुनाह का गुनाह है , तो महज़ इतना कि वो गरीब मुसलमान है ...?वोट की खातिर नेता किस हद तक गिरेंगे , अंदाज़ा लगा पाना बडा ही मुश्किल है । लेकिन अपने फ़ायदे के लिए लोग सियासी दलों के साथ किस तरह का मोल भाव करेंगे ये चुनावी आहट मिलते साफ़ होने लगा है । देश के तथाकथित अल्पसंख्यक , जो कई हिस्सों में बहुसंख्यक हो चुके हैं , वे ही राजनीतिक दलों की नकेल कस रहे हैं । वोटों के गणित और सियासी नफ़े - नुकसान के चलते मुसलमान मतदाताओं को भेडों की तरफ़ हकालने का चलन देश के अंदरुनी हालात के लिए विस्फ़ोटक हो चला है । लालू ,मुलायम ,पासवान , मायावती ,कांग्रेस और कुछ हद तक अब बीजेपी भी मुसलमानों वोटों की खातिर तुष्टिकरण का भस्मासुर तैयार कर रही है , समूचे देश को ले डूबेगा ।ये सभी घटनाएं देश में व्याप्त अराजकता और अव्यवस्था की ओर इशारा करती हैं । संविधान और कानून के प्रति लोगों की आस्था कहीं दिखाई नहीं देती । राजनीति के कंधे पर सवार होकर लोग मनचाहे ढंग से कानून तोड मरोड रहे हैं । लोगों की उम्मीद भरी निगाहें कभी न्याय की चौखट पर जाकर टिक जाती है , तो कभी संसद के गलियारों में भटक कर रह जाती है । मीडिया को आम लोगों की परवाह ही कहां रही । प्रशासन इन सबकी चाकरी बजाये या जनता की सुने ।

Tuesday, January 27, 2009

मुस्लिम तुष्टिकरण की हवा निकल गई.............

सरकार ने बाटल हाउस मुठभेड़ की जाँच की मांग करने वाले नेताओं का मुंह बंद कर दिया है. साथ ही, सरकार के रूख से यह भी स्पष्ट हो गया है कि अब वह किसी और जांच के लिए तैयार नही होगी. २६ जनवरी को गणतंत्र-दिवस परेड से पहले राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने बाटला हाउस मुठभेड़ में शहीद दिल्ली पुलिश के जाबाज सिपाही इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा को शांतिकाल के सर्वोच्च पुरस्कार अशोक चक्र से सम्मानित किया है. ज्ञातव्य है कि गत वर्ष १९ सितम्बर को जामिया नगर इलाके के बाटला हाउस में ५ आतंकवादिओं के छिपे होने कि ख़बर पाकर, दिल्ली पुलिस की एक विशेष टीम ने आतंकवादिओं से लोहा लिया था. जिसमे मोहन चंद्र शर्मा आतंकवादिओं की गोली का निशाना बन गए थे. ये पांचो आतंकवादी मुसलमान थे. जिसके कारण अल्पसंख्यकवादी राजनीति करने वाले नेताओं ने इस मुठभेड़ की जांच की मांग की थी. केन्द्र सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम, मजबूरी में ही सही लेकिन "देर आयद दुरुस्त आयद" है. सरकार के इस कदम से,देश के १० करोड़ मुस्लिम मतदाताओं पर नजर गड़ाए अमर सिंह, मुलायम सिंह, रामबिलास पासवान, मायावती और लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं को गहरा धक्का लगा है.

Thursday, January 22, 2009

HISTORY DEFINES SECULARISM..... HINDUTVA A CURSE>>


Are you a
Secularist?
Then please answer these questions for yourself
There are nearly 52 Muslim countries.
Show one Muslim country which provides Haj subsidy.
Show one Muslim country where Hindus are extended the special rights that Muslims are accorded in India?
Show one country where the 85% majority craves for the indulgence of the 15% minority.
Show one Muslim country, which has a Non-Muslim as its President or Prime Minister.
Show one Mullah or Maulvi who has declared a 'fatwa' against terrorists.
Hindu-majority Maharashtra, Bihar, Kerala, Pondicherry , etc. have in the past elected Muslims as CM's, …..
Can you ever imagine a Hindu becoming the CM of Muslim - majority J&K?
In 1947, when India was partitioned, the Hindu population in Pakistan was about 24% ….Today it is not even 1%.
In 1947, the Hindu population in East Pakistan (now Bangladesh) was 30% …. Today it is about 7%.
What happened to the missing Hindus?
Do Hindus have human rights?
In contrast, in India, Muslim population has gone up from 10.4% in 1951 to about 14% today;
…whereas Hindu population has come down from 87.2% in 1951 to 85% in 1991.
Do you still think that Hindus are fundamentalists?
In India today Hindus are 85%. If Hindus are intolerant, how come Masjids and madrasas are thriving?
How come Muslims are offering Namaz on the road?
How come Muslims are proclaiming 5 times a day on loud speakers that there is no God except Allah?
When Hindus gave to Muslims 30% of Bharat for a song, why should
Hindus now beg for their sacred places at Ayodhya, Mathura And Kashi?
Why Gandhiji objected to the decision of the cabinet and insisted that Somnath Temple should be reconstructed out of public fund, not government funds. When in January 1948 he pressurized Nehru and Patel to carry on renovation of the Mosques of Delhi at government expenses?
Why Gandhi supported Khilafat Movement (nothing to do with our freedom movement) and what in turn he got?
If Muslims & Christians are minorities in Maharashtra, UP, Bihar etc., are Hindus not minorities in J&K, Mizoram, Nagaland, Arunachal Pradesh, Meghalaya etc? Why are Hindus denied minority rights in these states?
When Haj pilgrims are given subsidy, why Hindu pilgrims to Amarnath, Sabarimalai & Kailash Mansarovar are taxed?
When Christian and Muslim schools can teach Bible and Quran,
…. Why Hindus cannot teach Gita or Ramayan in our schools?
Do you admit that Hindus do have problems that need to be recognized? Or do you think that those who call themselves Hindus are themselves The problem?
Why post - Godhra is blown out of proportion, when no-one talks of the
ethnic cleansing of 4 lakh Hindus from Kashmir?
Do you consider that - Sanskrit is communal and Urdu is secular, Mandir is Communal and Masjid is Secular, Sadhu is Communal and Imam is secular, BJP is communal and Muslim league is Secular, Dr.Praveen Bhai
Togadia is ANTI-NATIONAL and Bhukari is Secular, VandeMatharam is communal and Allah-O-Akbar is secular, Shriman is communal and Mian is secular, Hinduism is Communal and Islam is Secular, Hindutva is
communal and Jihadism is secular, and at last, Bharat is communal and Italy is Secular?
Why Temple funds are spent for the welfare of Muslims and Christians, when they are free to spend their money in any way they like?
When uniform is made compulsory for school children, why there is no Uniform Civil Code for citizens?
In what way, J&K is different from Maharashtra, TamilNadu or UttarPradesh, to have Article 370?
Abdul Rehman Antuley was made a trustee of the famous Siddhi Vinayak
Temple in Prabhadevi, Mumbai ….Can a Hindu - say Mulayam or Laloo – ever become a trustee of a Masjid or Madrasa?
Dr. Praveen bhai Togadia has been arrested many times on flimsy grounds.
Has the Shahi Imam of Jama Masjid, Delhi, Ahmed Bhukari been arrested for claiming to be an ISI agent and advocating partition of Bharat?
Can this happen anywhere, except in a HINDU NATION - BHARATH?
JAI HIND !!!
A Muslim President, A Hindu Prime Minister and a Christian Defence Minister run the affairs of the nation with a unity of purpose.
Please forward it to as many Indians as possible
"Hinduism is not a religion it is a way of life.
- Swami Vivekananda
This is not prepared by/for any political party/group
… these are the observations & the thoughts of
a Citizen Of India

Friday, January 16, 2009

वर्ष २००८ विद्यार्थी परिषद् जामिया इकाई का लेखा-जोखा

वर्ष २००८ विद्यार्थी परिषद् ही नही देश के इतिहास के पन्नो में जामिया अभाविप का कार्य स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा । दुनिया चाहे लाख कोशिश करे एक दिन हमारे साहसी साथियों देशप्रेमियों की छोटी से छोटी कुर्बानी भी रंग लाएगी । याद रहे आजाद भारत का एक मात्र विश्व विद्यालय जामिया जहाँ हमारे साथी वन्देमातरम गाने पर फ़ेल हो जाते । शर्म । शर्म। शर्म। जहाँ तिरंगा फहराने पर अघोषित पाबन्दी है। शर्म करो देश के सेकुलरों और बांकी बचे देशभक्तों की आजाद भारतकी राजधानी दिल्ली मैं ऐसा हो रहा है। पर इस की चर्चा नही होती , मुशीरुल हसन आतंकियों का साथ देने आगे आते है तो मीडिया टूट पड़ती है। उसी दिन हमारे विरोध को ग़लत तरीके से पेश किया जाता है। आज जो भी हालत बने हैं उसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं -"जब भी अच्छा करने वालों को ताली देनी थी हम ने नही दिया , जब भी बुरा करने वालों को गाली देनी थी हमने नही दी "
राष्ट्र कवि दिनकर कहते हैं -----"न्योछावर मैं एक फूल , जग की ऐसी रित कहाँ
एक पंक्ति मेरी सुधि में भी सस्ते इतने गीत कहाँ "।
जामिया इकाई के कुछ महत्वपूर्ण काम --------------------------
(१) २५-०९-०८ को जामिया परिसर में कुलपति के राष्ट्र विरोधी कार्यों के खिलाफ प्रदर्शन , पुतला फूंका
और पचासों छात्र गिरफ्तार हुए ।
(२)तब से आज तक अलग-अलग तरीको जैसे पोस्टर, पर्चो , आदि के मध्यम से विरोध जारी।
(३)अमर शहीद मोहन चंद्र शर्मा की सहादत पर राजनीती करने वाले गद्दार अमर सिंह के घर पर श्री राम सेना के साथ मिल कर हमला किया ।
(४) कुछ दिन बाद फ़िर समाजवादी पार्टी का दफ्तर तोडा ।
(५)दिल्ली विश्व विद्यालय में आयोजित एक सेमिनार में देश द्रोही गिलानी के मुह पर थूका जिसमे हमारे कार्यकर्ताओं का पूरा सहयोग था । और यह घटना भी श्री राम सेना और जामिया विद्यार्थी परिषद् का संयुक्त कार्य था।

आप सोच रहे होंगे भाई सारे काम तो तोड़ -फोड़ वाले हैं ,लेकिन ऐसी बात नही हैं ।
(१) हर महीने की पहली रविवार को अलग -अलग विश्व विद्यालय के छात्रो के संग वाद-विवाद तथा सम्बंधित समसामयिक विषयों पर चर्चा का आयोजन जामिया इकाई पास के ही एक मन्दिर में करती है ।
(२) साथ ही तीनो महत्वपूर्ण जगहों जे एन यु , जामिया और d .u में राष्ट्रवादी रंगमंच की नीव डाली जा चुकी है और अगले महीने से रंगमंचीय गतिविधियाँ भी शुरू हो जाएँगी ।
(३)इसके अलावा काव्य पाठ , कहानी लेखन तथा विभिन पत्र-पत्रिकाओं में लेखन के लिए कार्यकर्ताओं को सुविधा मुहैया कराने का काम भी जामिया इकाई करती रही है। विदेश में प्रवास कर रहे राष्ट्रभक्त और महान हिन्दी सेवी सुभाष सहगल पंछी जी का कविता पाठ कराने की योजना पर काम चल रहा है।
(४) विभिन्न वेबसाइट जैसे प्रवक्ता। कॉम तथा हिंदुस्तान समाचार के साथ हमारे मीडिया के कार्यकर्ता बंधू अनेक रचनात्मक कार्यो में संलग्न हैं।
तो जी साहब हम पढ़े लिखे लोग हैं जो अपने तरीके से समाज में बदलाव लाना चाहते हैं। आज का युवा जिस तरह से हर बात में chup -chap बैठे हैं ,उसे तोड़ना चाहते हैं । हम राजनीति करने नही बल्कि देश सेवा करने आए है । हमारी धरती हमारी मातृभूमि ही हमारा करियर है । हमें किसी कुर्सी की चाहत नही, न ही केवल चुनाव के समय जागते हैं, हम तो साल भर जागने और दूसरो को जगाने वाले भारत माँ के बेटे हैं और अपने दम पर जीते हैं । जामिया में पढ़ रहे राष्ट्र भक्तों से आग्रह है की भाई हमारे साथ आओ और कुछ ऐसा कर जाओ कि ख़ुद से निगाह तो मिला सको। नपुंसकों कि भांति चुप्पी साध कर जीना हमने तो छोड़ दिया अब आपकी baari है, कैसे जीना चाहते हो ये आपकी मर्जी है??
वंदे मातरम .................................... भारत माता की जय ........................जय हिंद जय भारत.................................. इस धरती पर रहना है तो वंदे मातरम् कहना होगा.......................जय श्री राम ..................

जामिया विद्यार्थी परिषद् एकजुट है ...................


मुशीर के खिलाफ मोर्चा



आतंकी के मुह पर थूका

Sunday, December 7, 2008

वैश्विक स्तरपर जारी आतंकवाद वास्तव में सभ्यता का संघर्ष है ।

Sunday, November 30, 2008

जनता को लोलीपॉप मत दिखाइए .......... वरना लोकसभा चुनाव आने वाला है ........

शिव राज पाटिल के इस्तीफे का एलान नैतिकता से कोसोंदूर राजनीतिक हथकंडा भर है । मुंबई कांड को लेकर चौतरफा हमले झेल रही कांग्रेस ने सही मौके पर ये दाव खेला है । आगामी चुनावों को ध्यान मे रख कर एक रणनीति के तहत ये सारा नाटक रचा गया है । ये कैसी नैतिक जिम्मेदारी की बात कर रहे है पाटिल साहेब , जब दिल्ली मे बम फुट रहे थे तभी तो आप शूट बदलने मे मशगूल थे ! अपने कर्तव्यों को न निभाने की नाकामी को ढंकना आसान नही है। यह तो शुतुमुर्ग वाली बात हो गई । रेत मे सर ढकने से छुपने की कवायद महंगी पड़ सकती है । कही जनता इसे आपकी नामर्दी न समझ बैठे । विपक्ष के हमलो से बचने और जनता को बहलाने - फुसलाने का तीर खली जा सकता है। इन सब बातों मे दो प्रश्न उभर कर सामने आते है - पहला, भारत का ९/११ कहे जा रहे इस हमले के बाद गृह मंत्री का इस्तीफा नैतिकता है या नपुंसकता ? दूसरा , आतंकवाद के मुद्दे पर जनता का विश्वाश हासिल किया जा सकता है >?......................... आगे आप ख़ुद सोचिये .....................आख़िर कब तक हम आतंकवाद से सम्झूता करते रहेंगे ? कब तक आतंकियों को जिन्दा पकड़ा जाएगा ? कब तक ये दामादों की तरह जेलों मे ऐश करते रहेंगे ? कब तक अफजल की फंसी टलती रहेगी ?कब तक ये मोहनचंद्र शर्मा , हमेंट करकरे, मजोर अजित जैसे वीर मरे जायेंगे ? कब तक ये दोगले नेता शहद्तो पर ऊँगली उठाते रहेंगे ? आख़िर कब तक चंद गद्दारों के कारन हम भारतीय मारे जायेंगे ? ......????////?///?//????????? इन सवालों के जवाब आप ख़ुद से पूछिये । अपने अधिकारों की लडाई ख़ुद से लड़िये । आज वक्त है सभी राष्ट्रवादी शक्तियों को एकजुट हो कर संघर्ष करें । बंगलादेशी घुसपैठियों के विरुद्ध हमने आन्दोलन चला रखा है । आगामी १७ दिसम्बर को' चिकेन नेक्क ' मे हम विशाल रैली कर रहे है और वहीँ से पुरे देश मे आतंकवाद विरोधी मुहीम का पहला चरण , जो की बंगलादेशी घुसपैठियों को भगाना है , शुरू हो जाएगा । आप तमाम राष्ट्रभक्तों से आगे आने की उम्मीद है। हर कोई अपने -अपने स्तर से सहयोग करे तो यह काम चुटकी बजाते ही हो जाएगा ।

Friday, November 28, 2008

असली आतंकी तो हम है ...............

मुंबई मे हुए फिदायीन attack इस बात की pusti करता है की असली आतंकवादी ,देश के gaddar कौन हैं। अपने kukarmo का श्रेय किसी और को मिलते देख bokhlaye jahadi आख़िर khulkar samne aahi गए । चारा भी क्या था ats तो उनके काम को हिंदू vadi sangathano के नाम कर रही थी !परन्तु , हो सकता है congressi इसे भी हिंदू aatanvad का नाम दे ! आख़िर इस भारत वर्ष मे secular होने के लिए हिंदू virodhi काम करना pahli shart जो है !////////////// तो आप भी jaaniye असली कौन है और नकली कौन है ??

क्या भारत एक "पिलपिला लोकतंत्र "है?

आतंकवाद को लाकर सरकारी दावों की पोल खुल गई । सालभर में जयपुर, बंगलौर ,अहमदावाद , दिल्ली ,और अब मुंबई मे कोहराम मचा हुआ है। तीन दिनों से मुंबई में आतंक का तांडव जारीहै । दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और मजबूत सैन्य शक्ति वाला भारत आज अपने हाल पर रो रहा है । सभी राष्ट्रीय संकट के नाम पर एकजुटता की बात करते है। अरे देश के कर्णधारो अब तक कहा सोये थे ?१.५ करोड आबादी के देश में २०-३० जेहादी घुस आते है और हमारी सरकार देखती रहती है ! बाद मे हालत काबू में लाना तो आम बात है , दरअसल हम हर हमले के पहले और बाद में सोते ही रहते है । प्रत्यक घटना के बाद खानापूर्ति कर मामला ठंडा कर दिया जाता है । आज भी वही हो रहा है अपनी नाकामियों को ढंकने के लिए कांग्रेस भाजपा शासन के दौरान हुयी घटनाओ का जिक्र कर रही है । आतंवाद के मसले पर बेक फ़ुट पर खड़ी सरकार अपने बिछाए तुष्टिकरण के महाजाल में ख़ुद ही फंसती जा रही है । अपनी नाकामी की तुलना दुसरे की नाकामी से करने यह तुलनात्मक अध्यन व्यावहारिक नही लगता है । जनता को विकास और सुरक्षा चाहिए स सरकार किसी भी दल की हो। बार-बार विमान अपहरण कांड को उछालनेवाली कांग्रेस शायद भूल जाती है की उस विमान में हमारे ही लोग थे । क्या उन नागरिकों को बचाने किजिम्मेदारी सरकार की नही थी ? वैसे भी इन gaddaron को आम लोगो की chinta कहाँ है ! इन्हे तो afjal guru के manvadhikaron की बड़ी fikra होती है ।amirparasti, muslim parasti और america parasti की abhyast congressi वही है jinhone कुर्सी के मोह मे देश के tukde किए थे । आज भी इनकी muslim tustilaran की niti jas की tas है । batla house कांड के बाद जिस तरह का mahool आतंक के khilaf बन रहा था उसे दबाने hatu malegaon का राजनैतिक istemaal bakhubi किया गया । उस मामले की पोल भी जल्द ही खुल jayegi । बाबा रामदेव से लेकर sri sri रविशंकर का नाम इस prakran में joda गया । nishchit rup से दाल मे कुछ kaala awasya है । yaha एक बात गौर के layak है " malegaon blast २९ sept को हुआ था, jaanch अभी suru भी नही हुई थी की ५ oct को शरद पवार ने me हिंदू aatankiyo के हाथ होने की ghoshna कर दी थी ।". इस मामले को देख रहे ats chif sahid हो गए । वो jinda होते तो sachchai का पता चल जाता शयद । खैर! जो हुआ सो हुआ भाई, अब मुंबई हमले मे sarkri sutra laskare taiba का हाथ बता रही है । lakin jamia के कुछ rashtrabhakt इसे "शिव सेना" का काम batane मे लगे है । आज जो कुछ भी ये चाँद jahadi इस्लाम के नाम पर कर रहे हैं वो rashtra को तोड़ने की gahri shajis है। babri मस्जिद और gujraat dango के आर मे nirdosho का खून बहने wale ये लोग अपना पाप खून से नही धो सकते । इनकी bato को samarthan देने wale secular marxwadi, lalu ,paswan , amar जैसे awsarvadi netao पर deshsdroha का mukadma चलना चाहिए , lakin हम rajnitik rup से इतने pilpile और kamjor है की ये मुमकिन नही । daya आती है ऐसे लोकतंत्र पर jaha intni aajadi है की aatanki आते है humla करते है फिर damaad की तरह हमारे jailo मे aaram से रहते है । duniya walo ऐसी aajadi और कहाँ ? ऐसी aajadi और कहाँ?...........................वंदे matram ............;

Thursday, October 16, 2008

क्या अरुंधती रॉय जैसे नकली बुद्धिजीवियों को देश के खिलाफ गतिविधियों में शामिल रहने के लिए कानूनी सज़ा या फांसी नहीं दे देनी चाहिए। बड़े अफ़सोस की बात है की भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ रहते हुए ही आप देश विरोधी गतिविधियों में शामिल रह सकते हैं और आपको कोई सज़ा भी नहीं मिलेगी। अरुंधती रॉय के खिलाफ कानूनी मामला चला का उसे फ़ौरन गिरफ्तार किया जाए। अब ऐसे में हमारी प्यारी अरुंधती रॉय निस्संदेह देश छोड़ कर भाग जाएँगी। तो ऐसे में वह जिस देश में भी भाग कर जाती हैं भारत फ़ौरन उस देश से अपने सभी प्रकार के सम्बन्ध समाप्त करने की घोषणा कर दे। या इससे भी अच्छा तरीका है की हमारी प्यारी अरुंधती रॉय जिस देश में भी भाग कर जाती हैं भारत उस देश से कहे की अगर आप अरुंधती रॉय को पकड़ कर उसका चेहरा काला कर देते हैं और उसे gadhe पर baitha कर उसकी video clip bana कर दिखाते हैं तो आपके देश के साथ भारत के सम्बन्ध बहुत gahre होंगे।

Tuesday, October 7, 2008

अमर सिंह राजनेता या राष्ट्रद्रोही


अमर सिंह राजनेता या राष्ट्रद्रोही
अमर सिंह जो समाजवादी पार्टी के महासचिव है /आजकल आतंकवादी संगठन सिमी के प्रचार प्रमुख बनने की जी तोड़ कोशिश में है /इस चक्कर में वे क्या बोल रहे है यह शायद उन्हें भी नही पता चल पा रहा है /अपनी इन हरकतों से वो देश के लिए घातक माहौल बना रहे है /अमर सिंह ने दो दिनों पूर्व एक ब्यान दिया जिसमे उन्होंने पिछले दिनों डेल्ही के बतला हाउस में आतंकवादियों से हुए मुठभेड़ में शहीद हुए पुलिस जवान मोहन चंद्र शर्मा की निष्ठा पर ही सवाल उठा डाला /जबकि श्री शर्मा की सहादत के तुंरत बाद अमर ने उनके परिवार को १० लाख रूपये सहायता के रूप में दिया था /इससे यह बात साबित होती है की उनकी सहादत को भी अमर ने वोट बैंक में बदलने की नाकाम कोशिश की और उसके बाद मुस्लिम नेताओ के साथ कुछ दिन बाद एक कार्यक्रम में उन्होंने श्री शर्मा की सहादत पर सवाल उठाकर मुस्लिम समुदाय का भी राजनैतिक लाभ उठाने की चल चल चल दी /लेकिन शर्मा के परिवार और मीडिया की जागरूकता ने इस बार अमर की चालाकी को बेनकाब कर दिया है /शर्मा की पत्नी ने जहा उनके १० लाख रूपये को वापस कर दिया है वाही मीडिया ने भी बहस छेड़ दिया है की सहीदो की सहादत पर इस तरह की राजनीति कितनी उचित है /बहरहाल ये अमर सिंह उसी आजमगढ़ के निवासी है जहा की जमीं इस समय आतंकवाद के लिए सबसे उर्वर जमीन बन गई है /अमर सिंह ने कभी भी आजमगढ़ के विकाश या उठान के लिए कोई कार्य नही किया /इसके बारे में यदि जानना हो तो वहा इनके एक भाई है अरविन्द सिंह जो इनकी वास्तविक कहानी बताते है /इस समय अमर के काले कारनामो के सबसे बड़े विरोधी भी अरविन्द है /उनके अनुसार अमर सिंह मिटटी को भी सोना बना कर बेचने वाले प्रतिभावानों में आते है /बहरहाल अमर सिंह आरोपों के महारथी भी कहे जाते है /अमर सिंह की नजरो में साम्प्रदायिकता साम्राज्यवाद से ज्यादा खतरनाक है इसलिए आडवानी जार्ज बुश से जयादा खतरनाक है /इन्होने सोनिया गाँधी के इशारे पर कुछ दिनों पहले अपने आका मुलायम सिंह और अपने फोनों को टेप किए जाने का आरोप भी लगाया था लेकिन जाच के बाद कुछ मिला नही/वैसे अमर सिंह के सम्बन्ध राजनेताओ से जयादा अभिनेताओ से है /इसलिए कभी कभी इन्हे भी अभिनय के दौरे पड़ने की सुचना भी है/लेकिन उन्हें यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए की उनका यह अभिनय उनके लिए ही नही बल्कि सरे राष्ट्र के लिए खतरनाक होगा /बहरहाल अमर सिंह राजनेता है या अभिनेता है या उससे भी अलग कुछ यह निर्णय भारत की उस जनता को लेना है जो भारत को जमीं का एक टुकडा नही बल्कि अपनी माँ मानता है /माँ की अस्मिता की रक्षा के लिए अब जनता को इस बात पर गंभीरता से चिंतन करना होगा /तभी अमर सिंह जैसे आधुनिक राजनैतिक शिखंदियो को मुह तोड़ जवाब मिलेगा /जे भारत माता --धीरेन्द्र प्रताप सिंह दुर्ग्वंशी जौनपुर उत्तर प्रदेश भारत
Posted by dhirendra pratap singh durgvanshi at 11:22 PM

Thursday, October 2, 2008

Vande Matram

जामिया मिल्लिया इस्लामिया-अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की ओर से सभी राष्ट्र वासियों को अभिनन्दन।